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Wednesday, November 30, 2016

जो भी है खूबसूरत है

जो भी है खूबसूरत है

पीली पत्तियों ने हरी कोंपलों को स्थान दिया है ,इस तरह पुराने पड़े पेड़ नए लग रहे हैं ,सांस ले रहे है ,हवा कुछ और ठंडी हो चली है पर अभी मफलर बाँधने  नहीं हुई है ,तुम्हारा हाँथ थामने में अब मेरी हथेलियां पसीजती नहीं , याद है ना पहली बार जब तुमने हाँथ थामा था ,इक सनसनाहट सी पूरे शरीर में दौड़ गई थी ,गाल दहक उठे थे , आरक्त ये शब्द कितने उपन्यासों में पढ़ा था ,पर अर्थ उस पल समझ में आया था। 

तुम मेरा पहला प्यार नहीं थे, पर तुमसे मिलने के बाद ये जाना प्यार बस प्यार होता है ,पहला प्यार कच्चे आम सा पर दुबारा होने वाला प्यार मादक ,बेहद मादक ,पूर्वाग्रहों से परे ,बंधनो से भरा हुआ नहीं। 

तुमसे जब मिली तो मैं मुक्त नहीं थी , सही गलत ,भला बुरा , पाप पुण्य अपने भीतर कई पाले खींच रखे थे, जिनकी लक्ष्मण रेखा को पार करना मेरे बस का नहीं था ,हर वक़्त मैं एक कटघरे में खड़ी अपने से सवाल करती खुद को दोषी ठहराती और सज़ा देती 

मेरा चेहरा ,मेरी आँखों के नीचे पड़े गहरे गड्ढे ,पीलापन कुल मिलाकर किसी सज़ायाफ्ता की तस्वीर बना रहे थे. क्यों उन गठरियों को ढो रही थी ,शायद परवरिश ,समाज और उसके मापदंड ,जो एक मध्यमवर्गीय इंसान को साहसी नहीं होने देता, मैं कायर बन रही थी, अपने आप से भागती हुई 

उम्र के एक दौर में दौड़ते भागते किसी माइलस्टोन पर थम कर सोचने लगी ,मैं कौन हूँ ,मैं क्या कर रही हूँ और एक वर्जित सवाल मन में बिजली की तरह कौंध गया , "आखिर मुझे चाहिए क्या ". 

बस इसी समय तुम आये होठों पर हलकी सी मुस्कान लिए ,बड़ी से बड़ी समस्या को मुस्कुरा कर हल करने का ज़ज़्बा लिए ,सब वही था तुमने मेरा नजरिया बदला , और वो बदलते ही मैं बदल गई एक एक करके बंधन ढीले पड़ने लगे ,गठरिया हलकी होने लगी , झुकी कमर कुछ सीधी हुई। 

अभी मैं नहीं जानती मैं तुमसे आकर्षित हूँ या दोस्ती में हूँ या प्यार में पर जो भी है खूबसूरत है