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Thursday, June 18, 2015

बेतरतीब मैं 18-जून २०१५


बेतरतीब मैं 18-जून २०१५ 
(१)

मेरे पिता जूतियां बनाते हैं मैं छोटे से बैकग्राउंड से आता हूँ ,पढ़ाई १२वीं के बाद छोड़नी पड़ी ,वो एक के बाद एक अपनी मज़बूरियां गिना रहा था ,मेज के इस पार मैनेजर की कुर्सी पर बैठी छोटे से शहर वाली लड़की के दिल में करुणा का सैलाब उठा जिसे एक चमकीले ऑफिस में बैठने वाली लड़की ने कुचल दिया , ऑफिस में दिल नहीं दिमाग चलता है। 

(२)

वक़्त बदलते देर नहीं लगती वैसे ही इंसान को बदलते ,कठिन समय में सामने वाले का व्यवहार भी कठिन हो जाता है ,जैसे -जैसे आप अपने बल पर  परेशानियों से पार पाकर ऊपर उठते हो ,वही चेहरे जो एक समय मुहं छिपाते थे ,मुस्कुराते हुए नज़र आते हैं, एक बन्दर की तकलीफ पर पूरा झुण्ड एक साथ आ सकता है पर इंसान ने अपने पूर्वज से ये नहीं सीखा  

(३)

सफल वर्तमान के साथ अतीत की गलियों में लौट -लौटकर जाना एक नशा सा होता है , कितनी बार सोचो नहीं जाना उतनी बार सम्मोहित से लौट लौट कर जाते हैं,उन पलों को जब आप गिरे थे,अपमानित हुए थे, आंसू पिए थे ,सब जश्न में थे और आप अकेले , आज आप जश्न में हैं तो किसी को अकेले में मत रहने देना 

(४)

हाँथ में महंगा फोन ,कंधे पर महंगा पर्स आँखों पर चश्मा ,उसने वो सब बटोर लिया था जो उसको रईस और खुश दिखा सकते थे,आँखों में काजल की लकीरे गहरी करते हुए अपनी उदासी को काला करना चाहती थी काश काजल  आँखों के भीतर भी लगा सकते। 

Friday, June 5, 2015

ये मैं तो नहीं हूँ


१। 
सामने से आती एक शक्ल बेहद पहचानी सी लगी ,वही है क्या ? अरे हाँ वही तो है 
आठ  साल पहले सादा से प्रिंटेड सूट में देखा चेहरा आज किसी महंगे ब्रांड के वन पीस ड्रेस में कुछ अज़नबी सा लगा ,आँखों में पहचान का भाव उभरा और पानी के बुलबुले सा फुट गया और रह गया नीरव स्थिर अज़नबीपन। 
या तो उसने पहचाना नहीं या … जाने दो 
वो पहचाना अज़नबी साया पास से गुज़र चुका था अपने साथ खुशबू की लकीर छोड़ते हुए, इसको परफ्यूम की जरूरत कब से पड़ने लगी, छत की मुंडेर पर चाहे अनचाहे करीब आते हुए कितनी बार एक मादक सुगंध को जिया था कुछ रजनीगंधा जैसी शायद।
उसके हाँथ आज भी थामने पर पसीजते होंगे क्या सोचते ही होंठों पर मुस्कान  तैर गई 
पिछले आठ सालों में ज़िन्दगी की दौड़ दौड़ते हुए कभी एहसास ही नहीं हुआ जिनके साथ जीने मरने की कसमें खाई  थी आज उनका ख्याल भी नहीं आता 

२। 
होटल के कमरें में सिगरेट फूंकते हुए निगाह दरवाजे की तरफ  लगी है ,भागती  ज़िन्दगी में जब कुछ जरूरते जागती हैं तो खाने से बिस्तर तक होम डिलीवरी के ऑप्शन मिल जाते हैं ऐसी ही ऑप्शन पिछले कुछ सालों कमरे में आते जाते रहे है। 
अब एक ज़रुरत के लिए ज़िन्दगी भर के बंधन तो नहीं पाल सकता ना 
दरवाजा खुलते ही एक खुशबू का झोंका अपनी गर्माहट से भर देता है ,अचानक ये खुशबू खींचकर गली के मोड़ पर खड़ा कर देती है दिल की धड़कने तेज हो रही है , मेकअप की परतों में लिपटा अजनबी चेहरा अपना सा क्यों  लग रहा है ,
क्या ये वो है ,काश वो ना हो , उसको अपने साथ चाहा था एक ज़माने में पर 
आज इस कमरे में इस बिस्तर पर तो नहीं, उसके करीब आते ही एक ठंडी सांस राहत की भरता हूँ , वो नहीं है।  

३। 

उस दिन के बाद होटल के कमरें में जा नहीं पाया हूँ ,एक डर  भीतर बैठ गया है , उस दिन अगर वो होती तो ,इस बार नहीं थी पर अगली बार हुई तब ,ऐसे कितने चेहरे कितने रिश्ते बनाता बिगाड़ता आया हूँ , कुछ तो बीता है भीतर ही भीतर जिसने आत्मा जैसा कुछ जगा दिया है। 
भला -बुरा ,पाप पुण्य कानो में बज रहे है.
हरिद्वार में गंगा किनारे बैठे हुए पानी के शोर में कुछ चीखे कुछ रुदन जैसे सुनाई दे रहे हैं , मेरा अहम उसकी मिन्नतें , मेरी लापरवाही उसकी हताशा ,या कितने मज़बूर मुस्कुराते चेहरे। 
पैर पानी में जाते ही दिमाग और दिल में द्वंद  शुरू हो जाता है , मैं आज जो हूँ ऐसा तो नहीं था ,कब मैं बदलता गया। 
बचपन की मासूमियत से कैशोर्य के अल्हडपन  से युवावस्था के जोश तक, तब तक तो सब ठीक था , सपने थे दिल था धड़कन थी दर्द भी था
दिलों का सौदागर कब बना ,पहली बार दिल और भरोसा तोड़ा तो बुरा लगा फिर कम बुरा लगा फिर बुरा लगना बंद हो गया 
ये आज अतीत का कौन सा दरवाजा खुल गया है जो दिल दिमाग को भारी किये जा रहा है 
घाट पर बैठे पण्डे से माथे पर चन्दन लगवाता हूँ शायद दिमाग को ठंडक मिले 
आइना देखता हूँ  पर ये मैं तो नहीं हूँ 

Wednesday, June 3, 2015

बेतरतीब मैं (३ जून )

बेतरतीब मैं (३ जून )
(१)
दुनिया कीचड है अपने आप को कमल मत समझो कीचड के दाग अगर दामन पर लगे तो खुद से घिन आते देर नहीं लगेगी।
आस पास सूअर घूमते  है जिन्हे उसी कीचड में लोटकर आनंद की प्राप्ति होती है आपको दिखाते है ये कीचड तब तक गंदा लग रहा है जब तक बाहर से इसको देख रहे हो एक बार भीतर तो  उतरो फिर दुर्गन्ध सुगंध में बदलेगी।
अभी तो ना जाने का ऑप्शन खुला है एक बार उतरे तो बाहर आने का कोई रास्ता नहीं  मिलेगा।
कुछ सुख ना मिलें तो बेहतर।


(२)
मोह है इस शहर से इस गली से ,गली के मोड़ पर पान के खोके से रास्ते में पड़ने वाले जामुन के पेड़ से ,साल भर मिलने वाली छाया से , कितनी बार कदम उठाये के वापस लौटा  जाए वहीँ ठिकाना बनाया जाए,  एक प्याज ,एक चुटकी नमक ,चार रोटी  और सत्तू दो वक़्त ये तो जुड़ ही जाएगा।
शायद सुकून की नींद भी मिल जाए जो एक मुट्ठी गोलियां गटककर भी नसीब नहीं होती है ,आसमान के तारे भी नहीं दीखते यहाँ से।
पर कोल्हू के बैल की यात्रा अनवरत होती है एक ही दिशा में उसके थकने तक ,उसके थमने तक


(३)

जब पास समय होता है तो हम व्यस्तता तलाशते है जब व्यस्त होते है तो समय की कमी का रोना रोते है , किसी दिन शायद समझ जाए हमें चाहिए क्या , क्या ये खोज ये मानसिक स्थिति सिर्फ मेरी है या इस यात्रा में मेरे साथ बहुत से साये है।


(४)
पीठ पर एक ज़ख्म उभर आया है , धूप  में जलता है ,ठंडी हवा में टीस मारता है कभी कभी इस तरह शांत हो जाता है मानो वो वहां है ही नहीं , कितने  आंसू  इस ज़ख्म के चलते जाया हुए है , नहीं याद कब मेरी पीठ पर सवार हुआ था रह रह कर अपने अस्तित्व को जताता रहता है।
बरहाल जब तक तुम थे ये नहीं था अब ये है और तुम लौटे नहीं_