तुमको लिखी वो तुमने पढ़ी
खयालो से कभी ना आगे बढ़ी
अक्सर किताबों में दबकर रही
मुझ जैसी तनहा मेरी चिट्ठियाँ ...
किसी पंक्ति पर खुलकर हंसी
किसी शब्द से झलकी बेबसी
खुलके ना कह पाई बात कभी
मर्यादा से बंधी मेरी चिट्ठियाँ ...
देने से पहले कई बार पढ़ी
हज़ार टुकडो में कई बार फटी
मैंने लिखी और मुझ तक रही
अंतर्मुखी सी मेरी चिट्ठियाँ ....
रात ख़्वाबों में उठकर चली
तकिये के नीचे दबकर रही
सोये रहे तुम पर जागी रही
करवटें बदलती मेरी चिट्ठियाँ ....