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Tuesday, October 29, 2013

बेतरतीब मैं (उन्तीस अक्टूबर )



अनावृत रहना कुछ का फैशन कुछ की मजबूरी और कुछ का व्यवसाय ... जिन कपड़ो को मौसम का सामना करने के लिए रचा गया था आज वो शालीनता ,मर्यादा ,धर्म ,रिवाज़ और अनुशासन ..ना जाने किन किन रूपों बाँट दिए गए है, कपडे सिर्फ कपडे नहीं रह गए है
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आप आओ फिर तय कर लेंगे एक माल के सभ्य रेस्टरूम में फोन पर हो रही बातचीत का एक टुकडा निगाह बात करने वाली पर उठा देता है, हम त्यौहार पर बाज़ार आये है वो खुद बाज़ार है . आँख के कोने में एक नमी का टुकड़ा मुझे तुमसे नफरत नहीं करने दे रहा, सिर्फ किस्मत की बात है , तुम्हारी जगह शायद मैं भी हो सकती थी
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उँगलियों में उंगलियाँ फसाए हाँथ की गर्माहट महसूस करते वो दोनों, एक ही लैपटॉप पर फेसबुक पर कुछ देखते और खिलखिलाते,तस्वीरे अपलोड करते, हाँ हम प्यार में हैं का एलान करते, फेसबुक से वेडिंग अल्बम में कन्वेर्ट हो जाना, आजकल रुसवाई भी एलान के साथ आती है
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हाँथ फैलाते हुए मेट्रो की सीढियों पर रोजाना,रेड लाइट पर चेहरे पर चढ़ाई हुई पीड़ा लपेटे या मंदिर की सीढियों पर कटोरे खनखनाते, सब एक जमात है. नकलीपन ने असली जरूरतमंद के बीच का अंतर ख़त्म कर देता है और हम पत्थर हो जाते है और इंतज़ार करते है लाल बत्ती के हरी होने का ताकि हमारे भीतर का इंसान भी भाग सके .और सुकून की सांस ले सके
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दिवाली पर ढेर पटाखों में चिंगारी लगाते तय नहीं कर पाती ..मैं उनका घर रोशन कर रही हूँ जो इन्हें बनाते है या उनके घरों में मायूसी भर रही हूँ जो उन्हें चला नहीं सकते इस बीच के फासले को पाटने की शुरुवात करूँ ?

Wednesday, October 16, 2013

बेतरतीब मैं (सोलह अक्टूबर)



बेतरतीब मैं (सोलह अक्टूबर)

बीते दशहरे रावण जला ,जिनको जलना था वो इस बार भी बच गए अंतत: सिद्ध हुआ सतयुग में की गई एक गलती आपको जन्म-जन्मान्तर तक अपराधी घोषित करवा सकती है , कलयुग में अपराध को अपराध और अपराधी को अपराधी सिद्ध करना आम मनुष्य के बस की बात नहीं .
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कन्या पूजन हुआ, सुबह से बेटियाँ ढूंढी गई ,जिनके जन्मने पर पड़ोस की भाभी दिलासे देने और चाची ऊपर वाले की मर्ज़ी का ज्ञान बाटने आई थी, आज उनकी पूछ सबसे ज्यादा थी, धन्यवाद देवी माँ अपनी पूजा के नौ दिनों में से एक दिन अपनी बेटियों को देने के लिए
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मेले में घूमते हुए  बचपन अचानक हाँथ थामकर साथ चलने लगा, उसकी ढेरो जिद रेत नमक में भुने पोपकोर्न, बांस से बना सांप , पलके खोलने मूंदने वाली गुडिया आज सब मेरे साथ घर चलने को तैयार , पर इस घर में जब मैं बचपन को नहीं ले जा सकती तो बचपन के साथी कैसे जायेंगे .
फिर मिलना ऐसे ही किसी मेले में .
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ज़िन्दगी महंगी है और उससे भी महंगे जीने के सवाल
कमाल है हमें वो सब चाहिए जो हमारे हाँथ की पहुँच से दूर है एडी उचकाकर भी जो ना छू पाए, हम लालसा करते है निराशा की, हमें मायूसी भाती है जानते हुए के सितारे आस्मां में है और दिए हाँथ की पहुँच में , हम दिए नहीं सितारों की चाह करते है ,और आँखों में दो बूँद मायूसी डालकर सो जाते है

Wednesday, October 9, 2013

बेतरतीब मैं ( नौ अक्टूबर )

बेतरतीब मैं ( नौ अक्टूबर )
ऊपर वाला हमेशा एक के बाद नई कसौटी कर कस रहा है, एक दम खरा सोना बनाकर मानेगा जितनी चोट पड़ेगी उतना खूबसूरत आभूषण बनकर निकलूंगी, हर दर्द के साथ बेहद लचीली बन रही हूँ ,बहुत पहले सुनी कहानी याद आ गई
सोने ने लोहे से पूछा तुम एक चोट में टूट जाते हो और मैं हज़ार वार भी झेल जाता हूँ , लोहा हस कर बोला बाहर वालो के वार झेलना कठिन है पर मुझपर वार करने वाले मेरे अपने होते है अपनों का दगा मुझे तोड़ देता है 
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बंद अँधेरे कमरे में आधी रात अगर आँख खुले तो आँखे रौशनी की किरण ढूंढती है ,बदहवासी में आँखे कमरे के हर कोने में रौशनी की उम्मीद में दौड़ जाती है, दिल को यकीन दिलाती है कोशिश करो कहीं ना कहीं रौशनी होगीही, आखिरी उम्मीद सुबह सूरज के निकलने की होती है ,
मेरे कमरे में अभी सूरज की किरण पहुंची नहीं है
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नीला आसमान और भूरी ज़मीन इसके बीच हवा और मैं ,मेरे भीतर उमड़ते ढेर तूफ़ान आँखों को मूँदकर होंठों को कसके भींचकर ,भीतर ही भीतर भिड जाती हूँ कौन जीता इसका फैसला अभी बाकी है
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पुराने से नए की तरफ का सफ़र है ज़िन्दगी ,पुराने घर से नया घर ,पुराने रिश्तों से नए रिश्ते ,पुरानी पड़ती देह से नयी देह की ओर, फिर दुःख क्यों ,शायद ये मोह है जो आखिरी रेशे तक बांधता है ...