अनावृत रहना कुछ का
फैशन कुछ की मजबूरी और कुछ का व्यवसाय ... जिन कपड़ो को मौसम का सामना करने के लिए
रचा गया था आज वो शालीनता ,मर्यादा ,धर्म ,रिवाज़ और अनुशासन ..ना जाने किन किन
रूपों बाँट दिए गए है, कपडे सिर्फ कपडे नहीं रह गए है
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“आप आओ फिर तय कर लेंगे “ एक माल के सभ्य रेस्टरूम में फोन पर हो रही बातचीत का एक टुकडा निगाह बात
करने वाली पर उठा देता है, हम त्यौहार पर बाज़ार आये है वो खुद बाज़ार है . आँख के
कोने में एक नमी का टुकड़ा मुझे तुमसे नफरत नहीं करने दे रहा, सिर्फ किस्मत की बात
है , तुम्हारी जगह शायद मैं भी हो सकती थी
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उँगलियों में
उंगलियाँ फसाए हाँथ की गर्माहट महसूस करते वो दोनों, एक ही लैपटॉप पर फेसबुक पर
कुछ देखते और खिलखिलाते,तस्वीरे अपलोड करते, हाँ हम प्यार में हैं का एलान करते,
फेसबुक से वेडिंग अल्बम में कन्वेर्ट हो जाना, आजकल रुसवाई भी एलान के साथ आती है
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हाँथ फैलाते हुए
मेट्रो की सीढियों पर रोजाना,रेड लाइट पर चेहरे पर चढ़ाई हुई पीड़ा लपेटे या मंदिर
की सीढियों पर कटोरे खनखनाते, सब एक जमात है. नकलीपन ने असली जरूरतमंद के बीच का
अंतर ख़त्म कर देता है और हम पत्थर हो जाते है और इंतज़ार करते है लाल बत्ती के हरी
होने का ताकि हमारे भीतर का इंसान भी भाग सके .और सुकून की सांस ले सके
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दिवाली पर ढेर
पटाखों में चिंगारी लगाते तय नहीं कर पाती ..मैं उनका घर रोशन कर रही हूँ जो
इन्हें बनाते है या उनके घरों में मायूसी भर रही हूँ जो उन्हें चला नहीं सकते इस
बीच के फासले को पाटने की शुरुवात करूँ ?