बादलों की मंडी थी
नदियों के धारों को
किनारों ने पकड़ा था
सब्र उसका छूटा जो
बिफर के निकल गई
उफनती नदी उस पल
किनारों पर चढ़ गई
चीखती लहरों में
आंसू थे पहाड़ों के
जंगल की कब्र थी
अवशेष देवदारों के
विनाश हमने रचा
उसका प्रतिकार था
लाखो आघातों पर
देवभूमि का चीत्कार था