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Tuesday, April 23, 2013

काबुलीवाले ! अब मत आना

मैंने कभी नहीं सोचा था मैं ये रचनाएँ पोस्ट करुँगी, जिन मासूम चेहरों पर सिर्फ बेफिक्री होनी चाहिए उनके साथ हर जगह वेहशीपन हो रहा है,चाहें अपने हो या पराये, घरों में अनाथालयों में सब जगह वही हाल है, इस पोस्ट पर कमेंट बंद रख रहीं हूँ  :-(

(१ )
काबुलीवाले !
अब मत आना
तुम्हारी पोटली डराती है
तुम्हारा स्पर्श चौंकाता है
बहेलिये से लगते हो
छिप जाते है खरगोश से
मासूम किन्ही कोनो में 
किलकारी अब सिसकी है 
चहकना सुबकने सा है
(२)
जिन खिलौनों को
उनके बनाने वाले
ठुकरा देते है
उन्हें पाने वाले
मनचाहा खेलते है
तुम कहते हो
ईश्वर है
(३)
सुना है प्रभु
काम बहुत बढ़ गया है
धरती पर विभाग
शिफ्ट कर रहे हो
सदा के लिए
नर्क को नया
नाम दिया था
"अपना घर "
तो बताते तो सही

Monday, April 1, 2013

अगली बहार तक ...

बड़ी बड़ी इमारतों से गुज़रते हुए ...गमलों में मुहं उठाये नन्हे पौधे अक्सर रास्ता रोक लेते है ..मनो कह रहे हो पनपने के लिए पूरी ज़मीन नहीं थोड़ी मिटटी की दरकार है ...हां अगर और बढ़ना  है तो अपनी ज़मीन खुद  पानी होगी ....
 
हाइवे पर तेज रफ़्तार गाडी दौडाते हुए ....डिवाइडर पर डटे गुलाबी फूलों से लदे मंझोले कद के शूरवीर जो गर्म काले धुंए के थपेड़े खाकर भी लहलहाते हुए से लगते है,हर लम्हा बिना रुके रात दिन अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुए,अपने इस युद्ध के बीच एक नज़र मुझपर भी डालते है   "हमसे भी कमज़ोर हो क्या ".. ....
 
पार्किंग के कोने में .... सबकी नज़र बचाकर कोई ऊपर आ रहा है पहले बाहें निकली है हरी नर्म मुलायम ..जैसे बच्चे बिना नाम ,मज़हब के पैदा होते है वैसे ही वो दो पत्तियां भी अनचीन्ही है ..
 
ज़मीन पर बिखरे पीले निराश पत्ते ..जानते थे मौसम के साथ उनका भी यही हश्र होना है पेड़ों ने भी उनकी विदाई का शोक मनाया कुछ दिन पर ज़िन्दगी रुकी नहीं ..फूट  पड़ी मोटे डंठलों में ,कठोरता को भेद कर मखमल से चमकीले पत्ते ...
 
पीपल सुलग रहा है ....खिड़की के ठीक सामने पीपल के जुड़वां पेड़ अचानक अपना रूप बदल के अचंभित कर रहे है ...वे हरे ...भूरे ना वे सुनहले हो उठे है अनूठे सच में बेहद अनूठे, सुबह उनको निहारना क्योंकि गर्म सुबहों में वे काई के रंग को लपेट लेंगे और ये स्वर्णिम आभा लुप्त हो जायेगी ...

फूल और प्रेम .... फूल और प्रेम कब एक दुसरे का पर्याय हुए ये तो नहीं जानती पर ये जानती हूँ कुछ तो कोमल सा प्रस्फुटित हो उठता है इन रंगबिरंगे दूतों को देखकर,पिछली रातों में जब हवा बादलों से बिगड़ रही थी ...बादल के दिल से आंसू नहीं पत्थर बरस रहे थे ,मेरे आँगन के उदार पेड़ ने ...एक पीली चादर बिछा दी इंतज़ार की

और मैं ... इतनी जीवंत चीज़ों में मैं भला निर्जीव कैसे रहूँ ...लड़ते ,जूझते अपनी ज़मीन तलाशते ,अपने रास्ते बनाते सोने सी चमकते ,जी ही लूंगी अगली बहार तक ...