Pages

Thursday, January 24, 2013

क्या रखा ?

यूँही खुद को मैंने सदा तनहा रखा
खुशियों से महरूम औ रुसवा रखा
महफिलों से कतरा कर गुज़रे हम
दर्द से दिल इस कदर बोझिल रखा
सो ना जाए किसी शब् सुकून से
पलक में एक अश्क उलझा रखा
रौशनी ना मांगने लगे आँगन मेरा
चराग भी रखा तो बुझता रखा
ना कोई हमसफर हो जाए मेरा
अपनी हस्ती को मैंने मुर्दा रखा
जुर्म क्या था तेरा ये बता "सोनल "

सांस लेना इस कदर मुश्किल रखा 
कैसे मिलेगा बहीखाता  ज़िन्दगी का
पास बस दिल का एक टुकड़ा रखा 

Tuesday, January 22, 2013

पधार रहे है .........


खबरदार होशियार
सियारों के सरदार
ऐय्यारों के ऐय्यार
करने  बंटाधार
पधार रहे है .......
 

बहरूपिये हज़ार
रंगे  सियार
लूटने को बेकरार
फिर एक बार
पधार रहे है .......
 

छुपे हथियार
खूं के तलबगार
तमाशेबाज़ ज़ोरदार
वोट मांगने द्वार-द्वार
पधार रहे है .........

Tuesday, January 15, 2013

वो तनहा !


छोड़कर घर फुटपाथ पर वो पड़ा था
वक़्त ने कितना कड़ा चांटा जड़ा था
गाँव को लगता था साहब बन गया वो
आखिरी दम सांस में काँटा गड़ा था 
सपने तोड़े सबके और उम्मीदें जलाई
राख पर अपनी आज वो तनहा खड़ा था
की बगावत समझा खुद को सिकंदर
पेट का सच आज सपनो से बड़ा था
किस तरह कहता मुझे वापस बुला लो 
सारे घर से रात भर कितना लड़ा था

Thursday, January 10, 2013

ये गठरियाँ



बिस्तर से उठने का उसका मन नहीं था पर उसने अपने  आप को समेटा और उठ खड़ी हुई ...सिलवटें देखकर चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई एक ब्लैक कॉफ़ी के लिए कदम रसोई की तरफ बढ़ गए ... पिछले तीन सालों से वो अपने मन की ज़िन्दगी जी रही थी जहां दिन उसकी मर्ज़ी के थे और रातें भी उसकी मर्ज़ी की ...उसकी मर्ज़ी ...
अपनी उम्र के लगभग 3 दशक उसने अपनी मर्ज़ी समझने में लगा दिए ... जो वो अपनी मर्ज़ी समझती थी वो वास्तव में उसकी नहीं दुनिया की मर्ज़ी थी और वो एक कठपुतली। अस्पताल में लोगों की ज़िन्दगी मौत का फैसला लेने वाली ...अपने फैसले लेने में इतनी दयनीय स्थिति में पहुँच जाती के उसको खुद यकीन नहीं आता के वो एक डॉक्टर है ...उसकी योग्यता एक तरफ और नारी होना दूसरी तरफ ...

कर्त्तव्य ,मर्यादा ,सही ,गलत ,विवेक ,संस्कार ,धर्म ,त्याग,शील  की गठरियाँ जो एक -एक करके उसको सौपी गई थी दादी -नानी ,मासी -चाची जैसे अपनों के द्वारा और आज वो धरोहर बोझ की तरह हो गई थी, जब वो अपने बारे में सोचना चाहती तो ये गठरियाँ  उस पर हमला कर देती और वो एक अपराध भाव से भर उठती ...ये ग्लानि  धीरे धीरे उसे निगल लेती और फिर वो इंसान से नारी में तब्दील हो जाती ...

पिता के जाने के बाद  घर की जिम्मेदारियों के बीच वो अपने को भुला चुकी थी ...समय बीत रहा था।कैलेण्डर में सालों के बदलने के साथ वो भी अपने में परिवर्तन महसूस कर रही थी। अच्छी नौकरी थी भाई बहन भी सेटल होने की राह पर थे ..पर अभी भी सब अधपका था ...शामें तो ठीक थी पर रातें उसे बेचैन कर देती ...ये बेचैनी उस नीली आँखों वाले डॉक्टर के अस्पताल में आने के बाद कुछ ज्यादा बढ़ गई थी ..उसकी आँखों में उतरता आकर्षण ..उसके दिल की धड़कने तेज कर देता। कोई इतना सहज और सरल कैसे हो सकता है ...बिना बनावट अपनी बात कह देता ...कई बार वो अपनी पसंद भी जाहिर कर चुका था , और वो भी तो उसे पसंद करने लगी थी .. उसका दिल किसी तरुनी की मानिंद धड़क उठता ...मचल जाता मुझे बस वही नीली आँखे चाहिए ..ओ मुझे प्यार और सम्मान से देखती है ...

उसी पल वो  गठरियाँ एक एक कर खुल कर पसर जाती ...उनके ढेर के बीच वो नीली आँखे ना जाने कहाँ खो जाती ....

घर पर बात करने का कोई मतलब नहीं था ...एक बार सोचा पर जानती थी ...भाई के भीतर का मर्द जाग उठेगा ... सब अचानक ज़िम्मेदार हो उठेंगे और अपनी ये गठरियाँ खोलकर उसकी गठरियों को और भारी कर देंगे ..के वो फिर उठ भी नहीं पाएगी,जहां अपने गोत्र में शादी करने पर जान का खतरा हो वहाँ किसी  की बात करना खुदको और उसको खतरे में डालने से ज्यादा कुछ नहीं था ....

एक दिन वही घटा जिसके घटने के  इंतज़ार में पिछले कुछ दिनों से थी  उन नीली आँखों ने जुबां खोल दी एक लाल गुलाब के साथ उस गुलाब की खुशबू से एक पल वो कस्तूरी हो उठी काश ... इस दुनिया में बस मैं वो और ये गुलाब रह जाये ..सब गायब हो जाए ..होंठो पे मुस्कान और आँखों में आंसू ... सामने एक मासूम चेहरा जो एक "हाँ" सुनने को बेचैन है
उसके लिए प्रेम दो दिलो दो इंसानों के बीच का रिश्ता था ...पर ये जानती थी उसके यहाँ प्रेम ही अपराध है, अपनी ज़िन्दगी का इतना बड़ा फैसला वो खुद नहीं ले सकती थी।। दिल हाँ कह रहा था पर गठरियो के बोझ तले वो हाँ किसी सिसकी सी दब गई ...
"मुझे थोडा समय दो " वो संयत होकर बोली
"यू कैन टेक योर टाइम स्वीटहार्ट " उसने उसे हौले से गले लगाकर कहा
वो पिघलते पिघलते बची ...
एक पल में सितार सी हो गई वो ...कुछ था दिल में जो बगावत कर रहा था खुद से अपने आप से ...आईने के सामने देर तक निहारती रही खुद को उसने मुझे पसंद किया क्योंकि मैं, मैं हूँ हर महीने घर पैसे लाने वाली मशीन नहीं, आज वो अपने आप को जानना चाहती थी ..मैं कौन हूँ क्या चाहती हूँ ...किसी ने कभी नहीं पूछा पर आज वो खुद से सवाल कर रही थी बंद कमरे में कई तूफ़ान उठे और बिखर गए ... एक एक कर कई गठरियो से सवाल उठे और उसने उनका सामना किया ...अभी तो ये सवाल खुद से पूछ रही थी ...पर जब ये सवाल उसके अपनों के मुह से बरसेंगे ..आंसू और गुस्से के साथ ...तब ...तब
"देखा जाएगा " उसने खुद को जवाब दिया ..
आज वो बागी हो उठी थी अपने लिए अपनी ख़ुशी के लिए ...जानती थी लोग स्वार्थी कहेंगे ...ताने देंगे, कोसेंगे कह देगी मुझे माफ़ करो छोड़ दो ...
क्रासिंग से दो गुलाब खरीदे .... एक ले जाकर अपनी टेबल पर लगाया ..एक पूरी हिम्मत के साथ उसे सौंप दिया
"यू डिड इट " वो शरारत से मुस्कुरा रहा था
फिर बातों के लम्बे सिलसिले में कितने कॉफ़ी के प्याले खाली हुए भरे ..याद नहीं ....आज वो बोल रहा था ... और ये मुग्ध सी उसका चेहरा देख रही थी ...
जिन लम्हों में वो खुद को अकेला पा रही थी ...उन पलों को भी वो समझ रहा था .. वो सिर्फ प्यार और साथ चाहता था ... और रिश्ता जब मैं चाहू ....पुरुष के दोस्ती भरे रूप से वो अनजान थी ...पिता ,भाई, रिश्तेदार सबको उसने कलफ लगी अकड़ के साथ ही देखा था ... वो माहोल ही एसा था वहां ....इस नीली आँखों वाले साथी का मिलना किसी शहजादे से मिलने से कम नहीं था ....
वो खुश थी ,जिन पलों में वो उसका हाँथ थामकर निश्चिन्त ही जाना चाहती ... अक्सर गठरिया जीवित हो उठती ... डराती चिल्लाती ...कभी सिनेमा हाल में ,कभी पिकनिक में ... वो एक एक कर उनको अपने से अलग कर रही थी ... रेत से फिसलते वक़्त के दरमियाँ वो कुछ चमकीले टुकड़े अपने लिए बचाना सीख रही थी
प्यार में होना आपके चेहरे को फेशियल सा असर देता है और शरीर को स्पा सा सुकून ...होंठो से बरबस निकल पड़ने वाले गीतों के मुखड़े और अंतरे चुगली कर देते है,
तो जीने दो ना उसे ....

एक रोज़  ... वो अपने शहजादे के साथ  घर से निकल आई, एक छोटे से आशियाने में जहां वो अपनी मर्ज़ी से रह सके ...जिम्मेदारियों के साथ खुद भी जी सके बिना डरे फैसले ले सके, उसके हाँथ और पैर काँपे नहीं ...उन गठरियों को देहरी के बाहर छोड़ दिया, आज वो भारी कदमो से नहीं बल्कि आत्मविश्वास से चल रही थी, दिनों के पंख लगे और रातें मादक हो उठी ... प्यार से सराबोर हो उठी ...प्यार पा रही थी और प्यार बाँट रही थी .... निखर रही थी ,
सपनीले दिनों में एक नन्ही किलकारी गूँज उठी उसकी फरिश्तों सी  मासूमियत ने पत्थर दिलो को भी मोम कर दिया ... टूटे रिश्ते जुड़ गए ... उसके साथ बुरा घटने का इंतज़ार करते करते कुछ सो कॉल्ड शुभचिंतक आशा खो बैठे ......

रात वो नीली आंखे कुछ कह रही थी ... उन्हें फ़रिश्ते का  साथ देने के लिए एक परी चाहिए थी ....
"हाँ वो परी ही होगी, आकाश दूँगी मैं उसे ... गठरियों की बजाय एक टोकरी सौपूंगी खुद चुनेगी " बुदबुदाकर कब एकाकार हो गई खुद ना जान पाई