Pages

Tuesday, December 17, 2013

मेरी चिट्ठियाँ




तुमको लिखी वो तुमने पढ़ी 

खयालो से कभी ना आगे बढ़ी 

अक्सर किताबों में दबकर रही 

मुझ जैसी तनहा मेरी चिट्ठियाँ ...

किसी पंक्ति पर खुलकर हंसी

किसी शब्द से झलकी बेबसी

खुलके ना कह पाई बात कभी

मर्यादा से बंधी मेरी चिट्ठियाँ ...

देने से पहले कई बार पढ़ी

हज़ार टुकडो में कई बार फटी

मैंने लिखी और मुझ तक रही

अंतर्मुखी सी मेरी चिट्ठियाँ ....

रात ख़्वाबों में उठकर चली

तकिये के नीचे दबकर रही

सोये रहे तुम पर जागी रही

करवटें बदलती मेरी चिट्ठियाँ ....




Thursday, December 5, 2013

बहुत काम है मुझको



बहुत काम है मुझको
लाल सूरज उगाना है
नया सा राग गाना है  
सितारे बाँध रख छोड़े
ओस बिंदु उठाना है
संवरने की कहाँ फुर्सत
अभी दिन भी सजाना है
जुगनू को सुलाना है
कलियों को जगाना है
भोर से रूठ छिप बैठी
उसे अब खींच लाना है
तुम्हारे जागने से पहले
दुनिया को सजाना है

Wednesday, November 20, 2013

बावरी मैं (बीस नवम्बर )



बावरी मैं (बीस नवम्बर )
(बावरों का कोई ठिकाना नहीं,अपने रिस्क पर पढ़े )

जानेमन सुनो
गए तो हो हज़ार मील दूर पर जाने नहीं दिया मैंने तुम्हारे साथ तुमको, करवट की सलवट अभी भी वही है बचाकर रखूंगी अपनी बेचैन सलवट के साथ, ताकि तुम आओ तो मिलान कर सकूं, यूँ तो तुम्हारा बंजारापन जाहिर था मुझपर पर तुम्हारा तो तन बंजारा है ,और मैं मन से बंजारन कही यूँ  ना हो के तुम लौटो तो मैंने बसेरा बदल लिया हो ... अरे नाराज़ काहे होते हो ज़रा सुनो तो रूठने मनाने के लिए यहाँ आना पडेगा तुमको मेरे पास, मैंने मोबाइल बंद कर दिया है ,इन्टरनेट भी इस्तेमाल नहीं कर रही इंतज़ार कर रही हूँ , एक चिट्ठी का ज़रा कलम तो उठाओ , एक पोस्ट कार्ड ही डाल दो के मैं पढ़ सकूं मजमून और छू सकूं तुम्हारी खुशबू ,चेहरा तो आँखों के सामने है ही.
बदलता मौसम बिलकुल तुम जैसा हो चला है हरजाई कहीं का ... जब चादर लपेटूं तो पसीने में भीग जाती हूँ और ना लपेटूं तो तन अपना नहीं रहता ज्वर सा लगता है , जिस दिन मौसम का मिजाज समझ लूंगी उस दिन तुम्हे भी समझ पाऊं , कई बार लगता है हम यहाँ क्यों जन्मे ... जहां सब बदल जाता है , किसी ऐसे देस में होते के जहां सारा साल एक सा मौसम रहता और तुम भी एक से ... पर मेरे मन का मौसम तो बदलता रहता है ...
अब जल्दी आओ
तुम्हारी बावरी

Tuesday, October 29, 2013

बेतरतीब मैं (उन्तीस अक्टूबर )



अनावृत रहना कुछ का फैशन कुछ की मजबूरी और कुछ का व्यवसाय ... जिन कपड़ो को मौसम का सामना करने के लिए रचा गया था आज वो शालीनता ,मर्यादा ,धर्म ,रिवाज़ और अनुशासन ..ना जाने किन किन रूपों बाँट दिए गए है, कपडे सिर्फ कपडे नहीं रह गए है
--------
आप आओ फिर तय कर लेंगे एक माल के सभ्य रेस्टरूम में फोन पर हो रही बातचीत का एक टुकडा निगाह बात करने वाली पर उठा देता है, हम त्यौहार पर बाज़ार आये है वो खुद बाज़ार है . आँख के कोने में एक नमी का टुकड़ा मुझे तुमसे नफरत नहीं करने दे रहा, सिर्फ किस्मत की बात है , तुम्हारी जगह शायद मैं भी हो सकती थी
------------
उँगलियों में उंगलियाँ फसाए हाँथ की गर्माहट महसूस करते वो दोनों, एक ही लैपटॉप पर फेसबुक पर कुछ देखते और खिलखिलाते,तस्वीरे अपलोड करते, हाँ हम प्यार में हैं का एलान करते, फेसबुक से वेडिंग अल्बम में कन्वेर्ट हो जाना, आजकल रुसवाई भी एलान के साथ आती है
----------------
हाँथ फैलाते हुए मेट्रो की सीढियों पर रोजाना,रेड लाइट पर चेहरे पर चढ़ाई हुई पीड़ा लपेटे या मंदिर की सीढियों पर कटोरे खनखनाते, सब एक जमात है. नकलीपन ने असली जरूरतमंद के बीच का अंतर ख़त्म कर देता है और हम पत्थर हो जाते है और इंतज़ार करते है लाल बत्ती के हरी होने का ताकि हमारे भीतर का इंसान भी भाग सके .और सुकून की सांस ले सके
-------------
दिवाली पर ढेर पटाखों में चिंगारी लगाते तय नहीं कर पाती ..मैं उनका घर रोशन कर रही हूँ जो इन्हें बनाते है या उनके घरों में मायूसी भर रही हूँ जो उन्हें चला नहीं सकते इस बीच के फासले को पाटने की शुरुवात करूँ ?

Wednesday, October 16, 2013

बेतरतीब मैं (सोलह अक्टूबर)



बेतरतीब मैं (सोलह अक्टूबर)

बीते दशहरे रावण जला ,जिनको जलना था वो इस बार भी बच गए अंतत: सिद्ध हुआ सतयुग में की गई एक गलती आपको जन्म-जन्मान्तर तक अपराधी घोषित करवा सकती है , कलयुग में अपराध को अपराध और अपराधी को अपराधी सिद्ध करना आम मनुष्य के बस की बात नहीं .
----------------------------- 

कन्या पूजन हुआ, सुबह से बेटियाँ ढूंढी गई ,जिनके जन्मने पर पड़ोस की भाभी दिलासे देने और चाची ऊपर वाले की मर्ज़ी का ज्ञान बाटने आई थी, आज उनकी पूछ सबसे ज्यादा थी, धन्यवाद देवी माँ अपनी पूजा के नौ दिनों में से एक दिन अपनी बेटियों को देने के लिए
--------------------------------------

मेले में घूमते हुए  बचपन अचानक हाँथ थामकर साथ चलने लगा, उसकी ढेरो जिद रेत नमक में भुने पोपकोर्न, बांस से बना सांप , पलके खोलने मूंदने वाली गुडिया आज सब मेरे साथ घर चलने को तैयार , पर इस घर में जब मैं बचपन को नहीं ले जा सकती तो बचपन के साथी कैसे जायेंगे .
फिर मिलना ऐसे ही किसी मेले में .
-------------------------------------

ज़िन्दगी महंगी है और उससे भी महंगे जीने के सवाल
कमाल है हमें वो सब चाहिए जो हमारे हाँथ की पहुँच से दूर है एडी उचकाकर भी जो ना छू पाए, हम लालसा करते है निराशा की, हमें मायूसी भाती है जानते हुए के सितारे आस्मां में है और दिए हाँथ की पहुँच में , हम दिए नहीं सितारों की चाह करते है ,और आँखों में दो बूँद मायूसी डालकर सो जाते है

Wednesday, October 9, 2013

बेतरतीब मैं ( नौ अक्टूबर )

बेतरतीब मैं ( नौ अक्टूबर )
ऊपर वाला हमेशा एक के बाद नई कसौटी कर कस रहा है, एक दम खरा सोना बनाकर मानेगा जितनी चोट पड़ेगी उतना खूबसूरत आभूषण बनकर निकलूंगी, हर दर्द के साथ बेहद लचीली बन रही हूँ ,बहुत पहले सुनी कहानी याद आ गई
सोने ने लोहे से पूछा तुम एक चोट में टूट जाते हो और मैं हज़ार वार भी झेल जाता हूँ , लोहा हस कर बोला बाहर वालो के वार झेलना कठिन है पर मुझपर वार करने वाले मेरे अपने होते है अपनों का दगा मुझे तोड़ देता है 
...................................
बंद अँधेरे कमरे में आधी रात अगर आँख खुले तो आँखे रौशनी की किरण ढूंढती है ,बदहवासी में आँखे कमरे के हर कोने में रौशनी की उम्मीद में दौड़ जाती है, दिल को यकीन दिलाती है कोशिश करो कहीं ना कहीं रौशनी होगीही, आखिरी उम्मीद सुबह सूरज के निकलने की होती है ,
मेरे कमरे में अभी सूरज की किरण पहुंची नहीं है
------------------------------
नीला आसमान और भूरी ज़मीन इसके बीच हवा और मैं ,मेरे भीतर उमड़ते ढेर तूफ़ान आँखों को मूँदकर होंठों को कसके भींचकर ,भीतर ही भीतर भिड जाती हूँ कौन जीता इसका फैसला अभी बाकी है
-----------------------------
पुराने से नए की तरफ का सफ़र है ज़िन्दगी ,पुराने घर से नया घर ,पुराने रिश्तों से नए रिश्ते ,पुरानी पड़ती देह से नयी देह की ओर, फिर दुःख क्यों ,शायद ये मोह है जो आखिरी रेशे तक बांधता है ...

Monday, September 23, 2013

बेतरतीब मैं (तेईस सितम्बर )



बेतरतीब मैं (तेईस सितम्बर )

तुम सोचते हो ज़हर मुझे मार देगा  गलत हो मैं ज़हर गले से उतरने नहीं देती मैंने मासूम दिल को बचा रखा है, नीलकंठ हूँ ,मेरा पीला पड़ता चेहरा पतझड़ की आमद का अंदेसा देता है फ़िक्र मत करो मैं अगली बहार के लिए तैयार हूँ

---

छिछिली नीयत वाले और ओछी सोच वाले ज्यादा है उनके चेहरे एक ख़ास तरह की मुस्कान से ढके है , ज्यादा मिठास से उनके वजूद में उभर आया लिजलिजापन,छिप नही पाता,वो शुभचिंतक ,सह्रदयता , निछ्चलता के मुखौटे लिए हमारे आस पास अपने आप को बेच रहे है, मेरे गले पर जमा ज़हर अपनी तेज़ी से मेरी आँखों को साफ़ रखता है और उनके मुखौटे पिघला देता है
----

एक देह के भीतर कितने महायुद्ध जारी है , मारने वाले हम, मरने वाले हम,
किसी पल कोई हिस्सा देह की सीमा तोड़कर आज़ाद हो जाएगा तो क्या ये युद्ध का अंत होगा,शायद नहीं भीतर विजयी होने वाला, बाकि देह आत्माओ से भिड जाएगा ,युद्ध कभी समाप्त नहीं होते ....अनवरत चलते है
---

मैंने तुमसे आज सुबह सीखी है जिद और सर उठाकर रहना,आघातों का सामना करना ,तूफानों में खड़े रहना ,पददलित होने पर उठ खड़े होना अपनी मिट्टी पकड़ कर रहना
घास मेरी वर्तमान गुरु