Pages

Tuesday, June 26, 2012

खुमार सावन का


चढ़ा आषाढ़ पर बुखार सावन का
कैसा है ये बवाल सावन का
सूखी पड़ी है पगडंडियाँ गाँव की
सबको है इंतज़ार सावन का
गर्म लू में भी फुहारों की बातें
अज़ब है ये खुमार सावन का
जहां देखो टंगी है आँखे  अम्बर पर
हर शख्स है तलबगार सावन का
झूले हांथों में चर्चे उसकी आमद के
जाने कब हो जाए  दीदार सावन का
अम्बर पे बादलों की आहट से चौकना
कितना मुश्किल है इंतज़ार सावन का
जिसके पिया इस बरस नहीं आयेंगे 
पूछो उससे कहर बेकरार सावन का
इस तीज बुलावा आएगा मां के घर से
बिटिया को है झूठा ऐतबार सावन का
फसल होगी, जलेगा चूल्हा इस साल
उसकी ज़िन्दगी पे है इख्तियार सावन का   
बहा था चढ़ती कोसी  में पिछले बरस
करता है वो कातिलों में शुमार सावन का 

Monday, June 18, 2012

सुनो !मैं पढ़ रहा हूँ तुम्हे ...

सुनो !

तुमसे बात करना कविता लिखने जैसा है ..बेहद नाजुक बातें होती है तुमसे ...बातें नाजुक हां ...इन गुलाबी होंठो से खुदा ना करे कोई और बातें हो ..तो मैं कह रहा था तुमसे बात करना .....तुम्हारी उंगलिया अनजाने संगीत पर  ताल देती है हमेशा या तुम कीबोर्ड कुछ ना पढ़ी जा सकने वाली इबारत टाइप कर रही हो कई बार सोचा की पूछ ही लूं शायद बता दो पर रहने दो जिस दिन महाकाव्य पूरा होगा उस दिन तुम्हारे लबो से सुनूँगा..तसल्ली से ...ये जो आदत है ना तुम्हारी बातें करते हुए अपनी जुल्फों में उंगलिया फेरने की ,,मुझे बादलो में बिजली के तड़कने का एहसास देती है ..कभी आईने के सामने खड़े होकर जुल्फों में फसीं  इन उँगलियों को यूँभी देख लेना ....मुझसे बात करते करते अचानक जो मुस्कुराती हो वो मुस्कान हमेशा रहस्यों से भरी होती है ..एक दिन इस मुस्कराहट ...इन होंठों से जुड़े सारे रहस्य हल कर लूँगा मैं पढ़ रहा हूँ तुम्हे समझ रहा हूँ तुम्हे ...अगर समझ पाया तो ...कई बार ऐसा लगा मेरी बातों को समझने के लिए तुम्हे अपनी आँखों का सहारा लेना पड़ता है ...जब किसी बात पर ध्यान देते हुए तुम अपनी आँखे छोटी करती हो तो लगता है मेरे विचार अपनी आँखों के रास्ते खींच रही हो अपने दिमाग तक और समझ में आते ही फिर उसी आकार में लौट आती है तुम्हारी आँखे .... तुम्हे जब लगता है मैं तुम्हे नहीं सुन रहा मैं तब भी तुम्हे ही पढ़ रहा होता हूँ ..ना तुमसे निगाह हटती है ना किसी पल ख्यालों से तुम गायब होती हो ,कहा ना मैं तुम्हे पढ़ रहा हूँ ..जब तुम बेतकल्लुफी जताती हो और सामने कुशन के सहारे  अधलेटी  होकर बात कर रही होती हो ..तो तुम जानती हो मैं तुम्हारे जिस्म की लहर के साथ चढ़ उतर रहा हूँ ... मेरी नज्मो में जो नमक है वो तुमसे ही तो है उधार लिया है मैंने ...एक दिन इस नमक का क़र्ज़ अदा कर दूंगा ...उस दिन तक ..मुझे पढने दो..

Friday, June 15, 2012

मुझे झूठा ही रहने दो


मुझे टूटा ही रहने दो
मुझे बिखरा ही रहने दो
संवर कर क्या करूंगी मैं
मुझे उजड़ा ही रहने दो
नहीं मेरे  लिए दुनिया
ना दुनिया के मैं काबिल हूँ
जिला कर क्या करोगे तुम
मुझे मुर्दा ही रहने दो
मैं हो जाऊं जो खँडहर
तो बेहतर ही समझना तुम 

सजेगी ना कभी महफ़िल
मुझे वीरां  ही रहने दो
आंसू की चंद बूँदें है 

गवाह  मेरी तबाही की 
यकीन क्योंकर करेगा वो 
मुझे झूठा  ही रहने दो 

Wednesday, June 6, 2012

तुम संग

तुमने कहने सुनने के सारे रास्ते बंद कर दिए ..तुम तक मेरी कोई सदा ना पहुंचे ....चीखती रहूँ मैं इस खुले आसमां के नीचे और तुम जिसने अपने को बंद कर लिया है एक कोठरी में ...क्या नहीं जानते तुम तुम तक मेरी क्या किसी की आवाज़ नहीं पहुंचेगी  साथ में ना पहुंचेगी सुबह की धूप और रात की चांदनी ...बारिश के बाद मिटटी की सोंधी खुशबू से महरूम रहोगे ..शायद यही तुम्हारी नियति है या तुमने इससे अपनी नियति बना लिया है ...तुम ताजगी से दूर रहना चाहते हो चाहते हो बासी यादों में लिपटे रहना  पर जानते नहीं क्या वो अतीत था ..अतीत वर्तमान को काला कर देता  है और काले रंग पर कोई और रंग नहीं चढ़ता ,पर मैं भी कोशिश करती रहूंगी  सुनहले,रुपहले और गुलाबी रंगों के साथ तुम्हारे मन की दीवारों को रंगने  की किसी दिन तो तुम एक झरोखा खोलोगे और मुझे आने दोगे ...कही ना कही कोई संद  रह गई होगी मैं एक किरण बन उतर आऊंगी और तुम्हे एहसास दिलाउंगी रौशनी सबके लिए है दुनिया में तुम्हारे लिए भी और तुम इनकार न कर सकोगे ...मैं आशा हूँ और तुम्हे निराश कैसे छोड़ दूं ...सच है वो तुम्हारी ज़िन्दगी का हिस्सा थी पर अब पन्ने पलट लो नए पन्ने पर कुछ लिखो अगर मुझे मौक़ा दो तो शायद मैं कुछ लिख पाऊं ...आखिर प्यार करती हूँ तुमसे ..
(गीत की भावनाओं को समझिये .........)


Monday, June 4, 2012

तुम बिन ....

पुरानी तस्वीरे ..छूटे रूमाल आधी काटी टॉफी और पेड़ पर चाक़ू से बना निशाँ सब वही है सब गवाह है तुम मेरी थी मेरे साथ थी पर अब तुम्हारे सिवा सब यहीं है. कितना आसान होगा ना जो तुम्हे बे-वफ़ा कह दूं और मोड़ लूँ अपनी राहे ,तुम्हारे करीब से ना गुजरूँ ना तुम्हे सोचूं पर क्या करूं उस नहर का जहाँ पैर डाले दोपहर बिताते थे मेरी राह तुमसे तो मुड़ गई है. पर वो नहर ना जाने कैसे अब भी मेरे रास्ते में आ जाती है ...और तुम्हारी खिलखिलाहट फिर से महसूस करवा देती है ...क्यों नहीं तुमको भाता था माल में घूमना जो मैं बंद कर देता वहां जाना ...तुम्हे सिनेमा  का शौक भी नहीं था मेरे लिए थोडा आसान हो जाता ना ..पर तुम्हे पसंद था मंदिर ,गलियों के चक्कर लगाना रिक्शे में बैठना ...फूटपाथ पर लगी रेहड़ियों से मोलभाव करना ...फिर २ रूपये कम करवाकर मुस्कुराना ...हर दूसरी लड़की यही करती दिख जाती है और साथ में तुम भी ...तुम्हारे खुले बाल जब बस की हवा से मेरे चेहरे पर बार बार आते थे और ना मैं उन्हें हटाता  था और ना तुम कोई कोशिश करती थी बस उसी सुकून भरी छाँव में मैं कितनी गर्मियां काट लेता था . आज तीखी धूप मुझे भीतर तक जला रही है अपने ही जलते मांस की गंध ने सांस लेना दूभर कर दिया है. कितनी आसानी से चली गई ना तुम ...काश मैं जाता और तुम यहाँ होती तो महसूस करती तड़प को दूरियां ही बनानी  थी तो इसी जहां में रहकर बना लेती कसम से कुछ नहीं कहता ...पर उस जहां तक मेरी आवाज़ भी तो नहीं जाती होगी ना ......