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Monday, December 31, 2012

रख जूती पर पाँव सखी !


लाठी कल बरसाई थी
इस बरस पड़ेंगे पाँव सखी
पीर ना मद्धम होने पाए
ताजे रखो घाव सखी
जूती सर पर पड़ी हमारी
रख जूती पर पाँव सखी
छीनेगे पतवार हमारी 
खुद खेवेंगे नाव सखी
पीड़ा हुई सब की सांझी
दिल्ली या उन्नाव सखी
मरी कोख में या बस पर
था वहशत का भाव सखी
ये गिरगिट बदलेंगे रंग
समझो सारे दांव सखी
छोड़े जिंदा फिर डस लेंगे
है बिच्छू सा स्वभाव सखी
बांटने वाले आज समझ ले
एक है सारा गाँव सखी








Friday, December 28, 2012

तुझे कैसे भूल गई !


 भुला दिया !
रात भर करवटें बदलने का फैसला  मैंने खुद किया था, तो किसी का क्या कुसूर :-(  गूगल में मिति का नाम ढूँढा ... फेसबुक पर खोज की यहाँ तक  ऑरकुट जिसे शायद पिछले चार सालों में मुड कर भी नहीं देखा था उसे भी एक्टिवेट कर डाला, दिमागी कीड़ा जाग चुका था और मेरा दिमाग खा रहा था,पर कमाल है जो पहचान का एक सिरा भी पकड़ में आ जाए ... तो मैं यादों की पतंग खींच लूं, जब आधी रात सोच दिमाग से उबालकर बाहर आने लगी तो हार कर  चादर में मुह घुसा कर सो गए ...एक हारे हुए खिलाडी की तरह ..ये  ऐसा था जैसे आपको किसी गाने की धुन याद आये और बोल नहीं ...या किसी फिल्म के गीत के साथ पूरी  फिल्म याद आयें और फिल्म का नाम याद आने का नाम ना ले ।

सुबह थोड़ी देर से हुई चूँकि छुट्टियाँ थी तो साँसे और घडी दोनों सुस्त रफ़्तार पकडें थी। रहस्य खुलने में ज्यादा वक़्त नहीं था तो दिमाग का कीड़ा भी सुस्त पड़ गया था। इससे ज्यादा मेहनत उसके बस की नहीं थी, तय समय से कुछ पहले मेगा माल के गेट पर खड़ी थी, मिति कौन थी इससे ज्यादा उत्सुकता इस बात की थी कोई ऐसा जो मुझे इतने अच्छे  से जानता है मैं उसे भूल गई .

बेचैनी से चारो ओर  निगाहें घुमा दी फिर एक मुस्कान खेल गई ..नाम तो याद नहीं शक्ल भी पता नहीं याद है भी  या नहीं। हर आती जाती लड़की के चेहरे पर आँखे गडा देती इसी उम्मीद में शायद वो मुझे पहचान ले। एक दो ने तो मुस्कान भी दे दी पता नहीं तरस खा रहे होंगे मुझ पर ...एक  लड़की हर किसी को अजीब तरीके से घूर रही है .

अचानक मेरे कंधे को किसी ने प्यार से थपथपाया, पलटी तो भूरी आँखों वाली एक भोली सी लड़की मुस्कुरा रही है, चुस्त जीन्स और गुलाबी टॉप, कुछ हल्का सा मेकप कानो तक छोटे -2 पर करीने से कटे बाल । मैं  मानो एक भंवर में उतर गई आँखे छोटी करके पहचानने की कोशिश में ना जाने कितनी  तसवीरें आँखों के आगे से गुज़र गई, मैं इसी हालत में कुछ देर और रहती अगर उसका ठहाका मुझे होश में नहीं लाता, एक पहाड़ी झरने सा खिलखिलाता . ये हंसी मेरे साथ रही है मैं पहचानती हूँ इस हंसी को पर ये इस चेहरे से कुछ मेल नहीं खा रही

"रहने दे स्नेहा तेरे बस की नहीं " उसकी  मुस्कान कुछ और खिल गई
अचानक सारे सूत्र  में आने लगे उलझन सुलझ सी गई ...और मैं उसके गले लग गई ..अरे मिति मैं तुझे कैसे भूल गई .......क्रमश:

(इस दुसरे क्रमश: के लिए मुझे पता है ढेरो ताने  मिलेंगे पर ये कहानी मुझसे मेरे सब्र का इम्तेहान ले रही है ... स्नेहा और मिति के साथ बने रहिये :-) )

Wednesday, December 26, 2012

भुला दिया !



कुछ दिन होते है खुराफातों के जब कोई बेचैनी आपको भीतर तक उकसा जाती है उठो और कुछ कर जाओ कुछ तो करो ..सक्रियता वाले रसायन शरीर और मन दोनों को झंझोड़ देते है ... माँ वाले समय में होती तो शायद किसी कोरे कपडे पर फूल चिड़िया रंगीन धागों से उकेर देती ...और दीदी जैसी तो किसी सूती कपडे पर धागों से नन्हे नन्हे मोती बाँध कर लाल हरे रंग में डुबो देती ..पर मैं तो अजीब हूँ कुछ अपूर्ण सी ,सुघड़ता के नामपर कुछ नहीं ...फिर क्या करूँ एक बार सिलाई करने बैठी तो अपनी फ्रॉक को समीज के साथ सिल डाला ....आर्ट के नामपर आम से ज्यादा कुछ नहीं बना पाती . फिर कुछ पर चढ़ा ये फितूर .. सोचते सोचते मोबाइल उठा लिया ..आज किसी ऐसे से बात करूंगी जिससे बरसों से बात नहीं की है हां ये अच्छा रहेगा कुछ अनजाना सा ..मोबाइल को लेकर घर के सामने पार्क में चली आई ,एक के बाद एक सारे नंबर आँखों के सामने से गुजरने लगे साथ ही उनसे जुड़े चेहरे भी कभी मुस्कुराती तो कभी उदासी ..किसी के नाम पर होंठ वक्र हो उठे।
अचानक एक अनजाना सा नाम लिस्ट में उभर आया "मिति" , दिमाग के सारे दरवाजे खटखटा  डाले  कोई पहचान की खिड़की खुले पर चाह कर याद नहीं आया, पीछे आठ सालों से यही नंबर है मेरा पर मेरी स्मृतियों में दूर-दूर तक कोई मिति नहीं है, क्या करूँ ? कॉल करती हूँ, देखती हूँ कौन है ?

गीत गूंजा "मुस्काने झूठी है " करीना के गहरे लाल रंग से पुते होंठ आँखों के सामने आ गए पर मिति का कोई सूत्र नहीं पकड़ पा रही थी, अचानक एक मीठी सी आवाज़ गूंजी "हेल्लो स्नेहा ,आज याद आई तुम्हे मुझे कॉल करने की ". इतने अपनेपन से किया गया सवाल मुझे ज़मीन पर पटक गया सोचा था हेल्लो के बाद पूछ लूंगी आपका नंबर मेरे मोबाइल पर है क्या हम कभी मिले है ?

संवाद की डोर उसने पकड़ ली थी ,एक के बाद एक सवाल पूछ रही थी मेरे बारे में काम के बारे में मेरे परिवार के बारे में , और मैं अपने दिमाग पर हथोड़े मारकर उसे जगाने की कोशिश कर रही थी काश किसी बात से कोई सूत्र मिल जाए और मैं इस बवंडर से आज़ाद हो जाऊं, किसी को एक आत्मीयता भरी बातचीत के बीच में टोकना और परिचय मांगना कितना कठिन काम है ये मुझे आज पता चला ... कही बिना रहस्य का  उठाये फोन रख दिया तो और आफत,बैठे बैठे ये आफत मैंने खुद मोल ली थी .मैंने संभाल संभाल कर सवाल करने शुरू किये शायद किसी जवाब से कोई रास्ता मिले और मैं इस शर्मिंदगी से बच जाऊं. पर नहीं सारे उपाय फेल हारकर मैंने उससे कह दिया "प्लीज़ बुरा मत मानना , मैं तुम्हे बिलकुल पहचान नहीं पा रही हूँ आज मोबाइल में नंबर देखा तो कॉल कर लिया हम कब मिले थे "

दूसरी तरफ एक पल को सन्नाटा पसर गया मेरी धड़कन अब मेरी कांपती पर वार कर रही थी.
अचानक वो बोली "तुम्हे सच में याद नहीं है हम कब मिले थे ?"
"नहीं " मैंने सकपकाते हुए कहा।

"जानने के लिए मुझसे मिलना पड़ेगा तुम्हारी यही सजा है मैं कल तुम्हारा इंतज़ार 12 बजे मेगा मॉल में करूंगी,वैसे भी तुम्हारी थैंक्सगिविंग की छुट्टियाँ है "उसने तसल्ली से कहा।
कल यानी 24 घंटे बाप रे मैं तो जासूसी नावेल भी पीछे से पढ़ती हूँ यहाँ इतना लंबा इंतज़ार ..आज की रात कैसे कटेगी। उसने फोन कट कर दिया मेरे पास इंतज़ार के अलावा कोई चारा नहीं था। .......क्रमश:

Tuesday, December 18, 2012

बस देह भर


पुनरावृति
हताशा की
एक मौन
अपने होने पर
एक पीड़ा
नारी होने की
वही अंतहीन
अरण्य रुदन
बस देह भर
ये अस्तित्व
छिद्रान्वेषण
पुन: पुन:
चरित्र हनन
या वस्त्र विमर्श
मैं बस विवश
बस विवश ...

Thursday, December 13, 2012

पिया बिदेस


ओ री सखी
सूनी बहियाँ
सीली अंखिया
बहकी बतिया
बिरहन रतियाँ

ओ री सखी
पिया बिदेस
जोगन भेस
रूखे केश
जीवन क्लेश
भेज संदेस

ओ री सखी
पूस मास
भूली हास
धूमिल आस
भारी सांस
अधूरी प्यास



Tuesday, December 4, 2012

हरि अनंत हरी कथा अनंता !!!


जीवन का आरम्भ क्या है पर जीवन का अंत क्या है ..आप कहेंगे वो भी पता है ,और मैं कहूँगी जो आप सोच रहे है वो सरासर गलत है अच्छा इस सवाल को ऐसे पूछती हूँ एक नारी के जीवन का अंत क्या है उद्देश्य क्या है ... कृपया आपके मन में उठ रही भाषण की स्क्रिप्ट अपने पास फोल्ड कर के रख लीजिये ...बघारने के लिए हमारे पास भी बहुत बड़ा ज्ञान का पिटारा है :-) और वो ही बघारने जा रहे है .

कल टी वी देखते हुए हमें जीवन के परम सत्य की प्राप्ति हुई वो तो पतिदेव आ गए वरना मोक्ष भी मिल गया होता ...

हर नारी के जीवन का अंतत: उद्देश्य ससुराल में हो रहे षड़यंत्र झेलना,छुपकर सुनना और फाइनली खुद षड़यंत्र रचना ही है यकीन नहीं आता तो गौर फरमाइए, हम जानते है आप सब भी जितनी बुराई कर ले पर दिमाग उन सजी धजी बहुओं में लगा रहता है, अरे मुझपर आँखे मत तरेरिये अगर मैंने भी नहीं देखा होता तो ये पोस्ट नहीं चेप रही होती :-)

 ये दुनिया दो तरह के लोगों से बनी है जो पहले जो सास-बहु ,बहन-बेटी सिरिअल पसंद करते है और दुसरे जो नापसंद करते है पर दोनों ही प्रेम और घृणा से ही सही पर देखते ज़रूर है।
अब मेरे जैसा दूसरी कैटेगरी वाला प्राणी इस विषय पर दूसरी पोस्ट लिख रहा है तो मतलब यही है ना देखते तो है ना :-)

पहली पोस्ट  टीवी मेरी तौबा.

अब बहनों ,बहुओं और उनके रिश्तेदारों हांथो में अक्षत लो और कुछ देवियों के बलिदान की कहानी संक्षेप में सुनो .( नायिकाओ/सीरियल के नाम नहीं दे रही हूँ आप सब समझदार हो , अभी जेल जाने का मूड नहीं है )

(1)
पहले -  एक खूंखार डाकू आँखों में गहरे काजल के साथ बदले की आग ,होंठों पर लिप्ग्लास के साथ गलियाँ ,जीवन का मकसद बदला- बदला -बदला !
बाद में -शादी ,आँखों में आंसू ,करवाचौथ का व्रत ,भारी साड़ियाँ जेवर ,षड़यंत्र झेलना,छुपकर सुनना और फाइनली खुद षड़यंत्र रचना।

(2)
पहले- एक आर्थिक रूप से कमजोर परिवार की बेटी ,जीवन का मकसद प्रशासनिक सेवा में जाना ,देश के लिए कुछ करना।
बाद में -शादी ,आँखों में आंसू ,करवाचौथ का व्रत ,भारी साड़ियाँ जेवर ,षड़यंत्र झेलना,छुपकर सुनना और फाइनली खुद षड़यंत्र रचना।

(3)
पहले- एक दबे कुचले तबके से ,मकसद अपने परिवार को हर संकट से उबारना।
बाद में -शादी ,आँखों में आंसू ,करवाचौथ का व्रत ,भारी साड़ियाँ जेवर ,षड़यंत्र झेलना,छुपकर सुनना और फाइनली खुद षड़यंत्र रचना।

भैया हरि  अनंत हरी कथा अनंता .... तो आप कुछ भी कर लो कोई भी मकसद तय कर लो फाइनली जीवन का उद्देश्य करवाचौथ का व्रत रखना और सजधज के रहना ही है
(ये सुविचार-कुविचार सब मेरे अपने ही है और इनका रोज़ रोज़ टीवी पर चलने वाली कहानियो से पूरा सम्बन्ध है )

Tuesday, November 27, 2012

मेरे शहर में



मेरे शहर में
शाम नहीं होती
देखा नहीं किसी नें
ढलते सूरज को
हाँ, वालपेपर पर
कई बार देखा है ,
ऑफिस से  निकलते है
बंधुआ मजदूर
अँधेरे में मुह छिपाए
कंधे झुकाए रोबोट 
नशे में डुबो देते है
पूरा दिन और तनाव
पर शाम को तो
उन्होंने भी नहीं देखा
आसमान के रंग
को लेकर अक्सर
बहस छिड़ती है
छ बाय छ के
पिंजरे से कभी
आकाश दिखा नहीं
जो घोसलों को
लौटते है बिना पिए
उनके चूजे भी
सीमेंट में पलते है
सीमेंट में बढ़ते है
शाम को वो भी जानते नहीं
कुछ बूढ़े बाते करते है
गोधूलि बेला की
पर ऐसा कुछ
मेरे शहर में नहीं होता 
दिन और रात के सिवा
कुछ नहीं देखा
मेरे शहर में
किसी ने भी
शाम को नहीं देखा

Thursday, November 22, 2012

घुंघराली जलेबियाँ





ये मौसम का ही कसूर है और उस पर हमारी भुक्खड़ तबियत ..ज़रा मौसम बढ़िया हुआ तो मुह में पानी आते देर नहीं लगती ...इसे ही नीयत और लार गिरती है गरम जलेबी पर ..बचपन से आज तक लाल लाल रस में डूबी ..प्यार से अपने पास बुलाती है जितना सुकून गर्म जलेबी को खाने में मिलता है उतना किसी मिठाई को नहीं।। सुबह का नाश्ता गर्म जलेबी के बिना पूरा ही नहीं होता कटोरी भर दही और प्लेट भर जलेबी और क्या चाहिए ...अमृत ..परमानन्द . .... जब नन्हे मुन्ने थे लहंगा पहन कर कन्या भोज के लिए तैयार हो जाते थे ...दही जलेबी की कन्या जो खाने को मिलती थी , घर में मेहमान आये तो जलेबी का नाश्ता, ननिहाल (इलाहबाद ) में बिलकुल अलग पैकिंग में जलेबी देख कर दिल बाग़ बाग़ हो जाता था चोकोर डिब्बा कुछ पत्तलों से बना ..अभी भी वो कहीं भूले भटके दिख जाए तो अपने राम को जलेबी ही याद आती है
सब मिलता है गुडगाँव में पर जलेबी में वो बात नहीं ..केसर का स्वाद अपने ठेठ देहाती स्वाद से मैच नहीं करता ऐसा लगता है ..अलता महावर से सजी गाँव की गोरी को स्कर्ट पहना दिया हो बेमेल और बे- ढब (किसी केसर प्रेमी की भावनाए आहत हो तो प्लीज पुलिस में ना जाए ). देसी जलेबी के नाम पर पुराने शहर में एक ही ठिकाना है जहां लाइन लगाकर जलेबी खरीदनी पड़ती है ..पर  जुबान से मजबूर इंसान करे भी तो क्या उससे ही काम चला लेते है , कई अलग अलग शहरों में जलेबी की फॅमिली से मिलना हुआ है ... पनीर की जलेबी ,गुड़ की जलेबी ,विशाल जलेबा ...
अरे आप लोग सोचने लग गए कितनी केलोरी होती है ,चीनी और घी के अलावा कुछ नहीं होता ,बहुत नुक्सान करती है तो भाई जलेबी की खिलाफत सुनने वाले कान हम बक्से में बंद रखते है ... और हाँ ..जो सबसे ज्यादा समझा रहे है इस सीजन शादियों में जलेबी के स्टाल पर ही पाए जायेंगे ... जलेबी प्रेमियों के बीच हुई बहस में अक्सर जलेबी के बेस्ट पार्टनर पर अंतहीन बहस छिड़ते देखा है ...दूध के साथ ,रबड़ी  के साथ या दही के साथ या यूँही ... अभी तक तो सर्वसम्मति हुई नहीं
जबान अपनी अपनी ..स्वाद अपना अपना
कुछ आपको पता हो तो हमारा भी जलेबी ज्ञानं बढाइये ...प्यार से खाइए ...मिठास बढाइये
 चाशनी से तरबतर
घुंघराली जलेबियाँ
उकसाती है अक्सर
तोड़ दो सारी कसमें
और थाम लो हमें
मेनका -उर्वशी सी
घुंघराली जलेबियाँ
बनती है सुबह -सुबह
तोड़ने को सारे प्रण
बस आज और, बस
कल से मत देखना
उलझी लिपटी सी
घुंघराली जलेबियाँ
कहती है चख लो
गुनाहों  के ढेर से
मीठा टुकड़ा गुनाह का 


Tuesday, November 20, 2012

मौन


सूरज भी मुश्किलों
 से उगा आज सुबह 
चिड़िया नहीं निकली
अपने  घोसलों से
बच्चे म्यूट मोड में
लगातार बिलखे
गाय दूध देने से
कर रही थी इनकार
तीन दिनों से
 ठहर -ठहर कर
वो भर रही थी सांस
इस घबराहट में
क्या पता खुदा
आक्सीजन की भी
सप्लाई रोक दे ...

Tuesday, November 6, 2012

आईने में अक्स




आईने में अक्स जिसका  है 
मुझसे  इसका एक रिश्ता है 
देखकर अक्सर मुस्कुराता है
किसकी सूरत से मिलता है ?

रोक देता है सरेराह मुझको 
आप बनता कभी बिगड़ता है 
सामने बैठो तो वादे हज़ार 
वरना  पहचान से मुकरता है .

मासूम ऐसा शक ना हो ज़रा 
सांस की आंच से पिघलता है 
संग फिरता है हमसाया होकर 
मुझे तो मुझ सा ही लगता है .

Monday, October 22, 2012

मैं कंघी

आज सुबह से मूड बन रहा है मोर्चा निकालने  का बस तय नहीं कर पा रहे थे किस बात को इशू बनाया जाए दुनिया की सबसे बड़ी समस्या क्या है .... भाई लोग आजकल हर बात पे धरना लगा देते है और हम इतने बड़े वेल्ले दुनिया के लिए कुछ भी नहीं कर रहे तो कुछ तो करने का समय आ गया है ...पर वो कुछ क्या हो सकता है इसी उलझन में टूथब्रश पर शेविंग क्रीम लगा ली और आज उसके स्वाद का भी पता चल गया :-) हमें अब अपने गंभीर होने पर कोई शक नहीं रहा भला तो करके रहेंगे दुनिया का चाहें कुछ भी हो जाए ...

समस्या का नाम लेते ही घडी पर निगाह गई इस विचारों के मंथन मे हम ज़रूर ठहर गए थे पर घडी सावधान की मुद्रा में चिढा रही थी ...विचारक महोदया ऑफिस जाना है अगर देर से पहुंची तो आपका बॉस आपके खिलाफ मोर्चा तान देगा ...वैसे भी आप से कुछ विरत सा रहता है ...हाय राम कितना खडूस है ..एक बार दो चार लोग साथ आ जाए तो उसके खिलाफ मोर्चा पक्का ... पर मैं इतनी स्वार्थी कैसे ...मुझे दुनिया का भला करना है अपना नहीं ... रसोई में कदम रखते हुए एक और झटका अभी तक काम वाली नहीं आई .... बर्तनों का ढेर ...गंदा घर बस चक्कर खाकर गिरने वाले थे ... कहीं दूर से मीठी आवाज़ सुनाई थी ...दीदी दरवाजा खोलो .... सुबह -सुबह कामवाली की सूरत पिया की सूरत से ज्यादा भाती है .....

घर की समस्या का समाधान मिलते ही हम देशसेवा में फिर तत्पर हो गए .. कौन सी समस्या को पकडे हमको वैसे तो बहुत सी समस्याओं ने घेर रखा है पर कोई ऐसी समस्या तो सूझे ... जितने "अचार" थे उसे आजकल अंकल लोग पकडे हुए हैं "भ्रष्टाचार , अनाचार ,दुराचार ,व्यभिचार " और बाकी क्लासिक समस्याओं  का ठेका आंटी लोगों के पास है "गरीबी ,भुखमरी ,बेरोजगारी ,जनसंख्या आदि आदि ". सुबह से सर खुजा रहे है और डंड्रफ के अलावा कुछ भी पैदा नहीं हो रहा ... समस्या तो क्या एक जूं  भी पकड़ नहीं आ रही ....

ऐसे कैसे चलेगा कुछ तो करना ही है, मन में देश की समस्याओं को सुलझाते हुए अपने बालों में कंघी को उलझा दिया और आईने पर निगाह गई चेहरे पर दर्द की रेखाएं ...उफ़ अचानक दिमाग का बल्ब पूरे वोल्टेज की पॉवर  से जगमगा उठा .... देश में उतनी ही समस्याएं है जितने सर में बाल बुरी तरह से उलझे हुए ...और सर यानी हम ...जब कुछ लोगों ने कंघी बनकर सुलझाने की कोशिश की तो उलझे बालों से सामना तो होना ही था ...और सर में दर्द भी .... दर्द से घबरा कर जब आप कंघी करना नहीं छोड़ते ..तो देश को समस्याओं के साथ कैसे छोड़ दे 

तो भाई डिसीजन ले लिया .... 

अब खुद  कंघी बनेगे 
समस्याओ से उलझेंगे 
आज नहीं तो कल 
सारे मसले सुलझेंगे 

Tuesday, October 16, 2012

बरषा बिगत सरद ऋतु आई


अंगडाइयां कुछ और सुस्त  ,जम्हाइयां लम्बी खिंचेगी क्या करे ये महीना ही ऐसा है जब सुबहें सबसे खुशनुमा और मुश्किल होनी शुरू होती है पंखों और ए सी का शोर बंद होते ही चिड़ियों की चहचहाहट साफ़ सुनाई देती  है 

..कमरे पे लगी दीवार  घडी की टिकटिक हमारी धड़कन के साथ ताल मिलाकर अपने ज़िंदा होने का सबूत देती है कमाल है गर्मी के लम्बें महीनो में ये आवाजें कहीं गुम  हो जाती है ..और अब हम जब चादर के भीतर सुकून पाते है तब ये आवाजें मुखर हो उठती है ...एक प्यारी सी आदत है सुबह आँख खुलते ही छत पर आना मानो सूरज से रेस लगा रहे हो ...हमेशा सूरज जीतता था ..आजकल हम :-) अपने इस दोस्त के साथ अब वक़्त बिताना दिन ब दिन ...दोपहर ब दोपहर और अच्छा लगेगा ....

कुछ दोस्त हर मौसम में अच्छे नहीं लगते ...  तंग करते है और कुछ मौसम उनके इंतज़ार के नाम हो जाते है ...गहरी साँसे भरके ताज़ा होने के दिन है जब तक कोहरे की नमी भरी बूँदें आपके चेहरे पर ओस नहीं छिड़कती।। हवा का रुख भी  बदला सा है गर्म लू की फुफकार के बाद सावन के  समझाने पर कुछ सुधर सी गई थी ..पर आजकल कुछ रूखी-रूखी सी महसूस हो  रही है ..ना रूकती है ना बात  सुनती मेरा आँचल  झटक कर चल देती है ...कभी कभी ऐसा तुनक जाती है अपने साथ पेड़ों के  पत्ते भी उड़ा  जाती है ..कहा था ना कुछ दोस्त हर मौसम  में अच्छे नहीं लगते ... 

मौसम का क्या कहें अपना शरीर भी पूरी तरह मूडी हो जाता है ...ज़रा सा गला बिगड़ा और सारा सिस्टम  सर से पाँव तक हड़ताल पर आँख नाक कान सब एक सुर में .... और ये 206 हड्डियों की मशीन विश्राम मुद्रा में ... हॉस्पिटल और मेडिकल स्टोर्स का सीजन शुरू ... जो कष्ट से मरेंगे वही तो "कस्टमर" कहलायेंगे .

कुछ बेतरतीब ख्यालों को समेटते हुए आप सभी को नवरात्रि  और शरद ऋतु  के आगमन की शुभकामनाये ....अपना ख़याल रखिये

बरषा बिगत सरद ऋतु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई॥

फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥

Tuesday, September 25, 2012

ये मोहब्बत जो ना कराये थोडा


ये मोहब्बत जो ना कराये थोडा 

अभी अभी मिली खबर के अनुसार एक हसीना का का दिल एक हसीं पर आ गया है अब आप कहेंगे इसमें क्या खास है दिलों का कारोबार तो आम है ...हसीन/हसीना लगना पूरी तरह दिल का मामला है इसमें दोनों पार्टी का वास्तव में हसीन होना मायने नहीं रखता ... लड़का भी बेनजीर है और लड़की भी हिना की तरह सुर्ख उफ़ ..क्या कहें मुल्क के मुल्क फ़िदा है यहाँ तक हमारे कृष्णा पर भी ऐसी मोहनी डाली है के बेचारे खुद माया में फंस गए है ... बेचारे अब्बू जान की जान सांसत में फसी है क्या क्या संभाले घर-आँगन दोनों आफत में है ... अब मोम और आग को साथ रखोगे तो यही होना है और भारतीय उपमहाद्वीप प्रेम के मामले में बहुत उपजाऊ है ..यहाँ प्यार बस प्यार देखता है उसे शादी ...उसके साथ जुडी आबादी ..धर्म जाति और आजकल जेंडर कुछ दिखाई नहीं देता . अब सारे चैनल एक सुर में राग बिलावल बजायेंगे और खुद भी झूमेंगे और जनता को भी झुमायेंगे ...भस्मासुर टाइप कहानी नहीं हो गई जो हथियार विदेशो को तबाह करने के लिए तैयार किया था बस ...वापस खुद पर चल गया... इनकी माने तो दोनों प्रेमी कुछ सुनने को तैयार नहीं है... 

अंधे इश्क के कहाँ सुनते है 
दिन रात आह भरा करते है 
अक्स दिलबर का आँखों में
भरे बाज़ार मजनू बने फिरते है 
रिश्ते पुराने अजीब लगते है 
अजनबी सबसे करीब लगते है 
फूंककर आशियाँ हँसते है 
यही दिलो को नसीहत करते है 
चाहो कहो दीवाना या आशिक 
हर रोज़ नई  हद से गुज़रते है 
अब्बू कहे या अम्मी समझाए 
बिगड़े ऐसे कहाँ सुधरते है 
रंग-ए-हिना चढ़ जाए दिलपर 
दाग बड़े गहरे पड़ा करते है 
सुर सधे जब मोहब्बत वाला 
राग विलाबल में  तान भरते है 

Tuesday, September 18, 2012

हथेली पे सूरज

हथेली पे सूरज 



अपने हिस्से का 
उगा लिया सूरज
खुश हूँ तुमने 
पा लिया सूरज 
कितनी बार 
बादलो ने 
छुपा लिया सूरज 
खुश हूँ तुमने 
पा लिया सूरज 
किस्मत ने 
जब दबा लिया सूरज 
खुश हूँ तुमने 
पा लिया सूरज 
सोनल 

Tuesday, September 11, 2012

एक बात कहूं गर करो यकीं



(पुरानी डायरी के पन्नो से ......)
एक बात कहूं  गर करो यकीं
ऐसा पहले कुछ हुआ नहीं
जैसा पल पल अब होता है
जैसा हर पल अब होता है
मैं जगते जगते सोती हूँ
और सोते से जग जाती हूँ
रातों को  करवट लेती हूँ
ना जाने क्यों मुस्काती हूँ
अन्जानी सी सिरहन कोई
भीतर से अक्सर उठती है
जो कह देते हो बात कोई
क्यों मेरी आँखे झुकती हैं
जादू तो तुमने किया नहीं
ख़ामोशी मैं सुन लेती हूँ
गुमसुम सी  मैं हो जाती हूँ
लगता है कुछ पा जाती हूँ
खुद जाने क्यों खो जाती हूँ
पूछूं गर तो सच कहना
प्यार यही तो होता है :-)



--
Sonal Rastogi


Friday, September 7, 2012

हैप्पी ब'डे सोनल ... लव यू

एक थोड़ा उनींदा और जागा दिन ...कुछ अलसाया सा एक बार पंख समेटकर वापस सोने की कोशिश पर परिंदों को तो घोसला छोड़ना ही होता है हर सुबह दाने की तलाश में , आसमां में छाये बादल ..तेज चलती ठंडी हवा कुछ लम्हे सिर्फ और सिर्फ अपने साथ ...पता नहीं, हर साल इस milestone पर क्या पाया क्या खोया टाइप की फीलिंग आती है पर आज नहीं आज का मौसम मेरे मूड को कॉम्प्लीमेंट कर रहा है ...नया दिन नया फोन ..और अभी तक सारे contact एक्सपोर्ट नहीं किये है , लोगों को उनकी आवाजो से पहचानना ..उनकी आवाजों के उल्लास को महसूस करना साथ में खुद को जीने की आशा दिलाना हां तुम ख़ास हो बहुत ख़ास ... ऑफिस के रास्ते छाई हुई हरयाली खरपतवार ...जो कहीं भी जड़े जमाकर पनप जाती है उनका जन्मदिन तो कोई नहीं मनाता चलो मैं तुम्हे विश करती हूँ, पहले इस बात से परेशानी होती थी अमुक को ये दिन याद नहीं रहा ..पर अब तसल्ली होती है चलो अच्छा है याद नहीं रहा ..कभी कभी कुछ भूल भी जाना चाहिए बरसों बरस इस दिमाग की सफाई नहीं हुई है कुछ गठरियाँ निकाल कर फेंक देती हूँ यादों के पुलिंदे आर्काइव कर देती हूँ ...अगले साल में नए खयालो के वास्ते जगह बना पाऊं अभी तो लिखना है ,हँसना है हसाना है ..ज़िन्दगी कैसी भी हो पर ज़िन्दगी को ख़ूबसूरती से जीना है ...हैप्पी ब'डे सोनल ... लव यू 


Friday, August 31, 2012

नीला उजास




सत्य है  वह 
या  भ्रम था 
मयूर वर्णी 
उसका तन था 
वैजयंती में 
पिरो गया वह 
वंशीधुन में 
डुबो गया वह 
नयन भी 
मुंदने ना पाये 
अधर भी 
खुलने ना पाये 
मोह मंतर 
पढ़ गया वह 
नीला उजास
भर गया वह 
चाँद उजला 
अब नहीं है 
भोर भी अब 
सुरमई है 
अधखुली आँखे 
भ्रमित मन 
पौ फटी है 
या ढला दिन

Wednesday, August 22, 2012

बंजर दिन बंजर रात ...

बंजर दिन
बंजर रात
सूनी आँखे
सूनी बरसात
कोरे कागज़
कोरी किस्मत
मौन अधर
कैसे हो बात
शब्द अधूरे
सन्दर्भ अधूरे
छितरे रिश्ते
बिखरे ख्वाब
मौन घाव
मुखर वेदना
कठिन घडी
कैसे हो पार



Tuesday, August 7, 2012

यही फ़िज़ा की मोहब्बत का हश्र है दुनिया



सुहाग बनके तुझे ही फ़िज़ूल बेच गया
गुलाबी फूल दिखाकर बबूल बेच गया
यकीन था तुझे जिस शख़्स के उसूलों पर
सर ए बाज़ार वो सारे उसूल बेच गया
ये कैसा सौदा किया है दिखा के आईना
तुझे वो रास्ते की गर्द औ धूल बेच गया
जिन्हें सजाती रही अपनी सेज पर हर शब 
तुझे वो तेरी ही तुरबत के फूल बेच गया
बनी  तमाशा तेरी  वस्ल भी जुदाई भी
नमक जख्मो के वास्ते नामाकूल बेच गया
यही फ़िज़ा की मोहब्बत का हश्र है दुनिया
वो बन के चाँद तुझे तेरी भूल बेच गया

Wednesday, August 1, 2012

सावन में नैहर की यादें



सावन में नैहर की यादें
पाँव में  जैसे पायल बांधे
झूले सखियाँ हंसी ठिठोली
मेहँदी राखी चन्दन रोली
देह धरी है पिया के घर में
मन मैके की देहरी फांदे
नभ से बरसे शोर मचाकर 
नयनन रोके ज़ोर लगाकर 
आंसू हुए खारे से सादे
घेवर फेनी खीर बताशे
तीज का मेला खेल तमाशे
पैरो में क्यों बेडी सी  बांधे 
सावन में नैहर की यादें

Wednesday, July 18, 2012

विभीषिका

कायर ही तो है
देखी है पीठ
हर अवसर पर 
प्रत्यंचाए तनी  थी
रणभेरी बजी थी
गूंजी थी टंकार
और वह
ढूंढ रहा था
ऐसा स्थान जहां
ना पहुंचे आर्तनाद
ना कोई चीत्कार
वही था आयोजक
वही निमित्त था
कल तक चिंघाड़ता
अट्टहास करता
आज काँप रहा है
भावी रक्तपात
भांप रहा है
छाया में गिद्ध
देखता है प्रतिदिन
उनके आभासी नख
भेदते है आत्मा
सोचा ना था उसने
जब शिराओ से
निकल बहेगा
गिरेंगे मुंड
विजय का रस
कसैला करेगा
देह को उसकी
श्मशान जीवित हो
धिक्कारेंगे
और अपनी छाया
दोषी ठहरायेगी
रक्त मज्जा से सने
अमृत कलश को
चख पायेगा
मृत्यु के दावानल में
स्वयं जीवित रह पायेगा

Tuesday, July 10, 2012

रिश्तों की पैरहन.

उसे प्यार नहीं था पर कर रही थी कोशिश प्यार करने की क्योंकि यही रिवाज़ है, हर लड़की को चाहना होता है अपने होने वाले पति को, और और समझाना होता है यही है वो राजकुमार जिसका इंतज़ार करती आ रही है सदियों से,जब नख से शिख तक माप तौल चल रही होती है लड़की की, उसके पिता के बजट की, तब भी उसे अपने होने वाले पति में ढूंढना होता है महान आदर्श पुरुष.जो हर तरह से उसके योग्य है ,उसके माँ पिता तो बस माध्यम है चुना तो स्रष्टि ने है ना उसके लिए, अपने सपनो के खांचे में फिट करके देखती है नहीं होता ,तो  अटाने की कोशिश करती है वैसे ही जैसे कोई नया सूट जो एक साइज़ छोटा हो उसे शरीर पर चढ़ा लिया जाए 

...क्योंकि बस वही है उसके पास वही सर्वश्रेष्ट है ,ये कोशिश जिसे अडजस्ट करना कहते है चलती रहती है ताउम्र, कुछ खुद को घोल देती है रोज़ थोडा थोडा और सुकून से सांस लेती है अब घुटन नहीं होती पर अपने को खोने का दर्द और टीस सालती है हमेशा जिसे एक नकली मुस्कान से ढका करती है ,

जो नहीं घुल पाती उनका शरीर झाँकने लगता है उधडी सिलाइयों से और पड़ते है गहरे निशान, देखने वाले निगाहों से और इशारों से कोंचते है ,उधडे रिश्तों को ,और वो बिता देती है पूरी उम्र घुटन में ,उनके भीतर की उमस उन्हें ही भिगोती है पसीजती है ,सूखती है पर उतार नहीं पाती वो रिश्ते कैसे सामना करेंगी दुनिया का रिश्तों की पैरहन के बिना निर्वस्त्र रह जायेंगी,
कुछ के पास वो पैरहन भी नहीं होता बेलिबास होती है क्योंकि उनका रिश्ता किसी और को ढक रहा होता है और वो सोचती है कोई नहीं देख रहा ,मांग के सिन्दूर को गहरा करती है ,मंगलसूत्र कुछ और बड़ा, आत्मविश्वास का पाउडर चेहरे पर कुछ ज्यादा जिससे चेहरा सफ़ेद दिखे ,पर चेहरा सफ़ेद दिखने की कोशिश में पीला दिखता है रक्तहीन, वे दिखाती है मेरे पास सब है ,उस राजा की तरह जो हवा का लिबास ओढ़े सड़क पर निकल गया था ...खुद को मुगालते में रखती है,

एक नई कौम अंकुरित हुई है हाल में उसी मिट्टी से,संस्कारों की खाद से सींची हुई, जिसके चेहरे पर आत्मविश्वास थोपा हुआ नहीं है,जड़े ज्यादा गहरी है, प्यार करने की कोशिश की बजाय प्यार करने में यकीन करती है,अडजस्ट करने के नाम पर इनकार करती है एक नाप बड़े या छोटे रिश्तो में उतरने के लिए या खुद चुनती है अपने नाप जिससे सांस ले सके या चुने हुए रिश्तों को परखती है, किसी भी घुटन,उमस को झेलने की बजाय आज़ाद कर लेती है खुद को, रिवाज़ खुद गढ़ने लगी है,रिश्तो के लिबास के बिना भी खुश रहती है क्योंकि वो जान गई है निर्वस्त्र रहना शर्म की बात नहीं है ईश्वर ने रचा है आपको एक खूबसूरत जीवन दिया है ,उसे उसके साथ जियो जिससे प्यार कर सको नाकि प्यार करने की कोशिश में ज़िन्दगी गुज़ार दो ......


Wednesday, July 4, 2012

सावन को झूमकर आना ही पडा

बेहयाई ओढ़े थे तपते दिन
बादलो को पर्दा गिराना ही पड़ा
लू भी ढीठ सताती थी बहुत
आसमां को रहम बरसाना ही पड़ा
कांटे बो गई दोपहर पीठ पर मेरी
बूंदों को मलहम लगाना ही पड़ा
आह मेरी बे-असर रहती कबतक
सावन को झूमकर आना ही पडा

Tuesday, June 26, 2012

खुमार सावन का


चढ़ा आषाढ़ पर बुखार सावन का
कैसा है ये बवाल सावन का
सूखी पड़ी है पगडंडियाँ गाँव की
सबको है इंतज़ार सावन का
गर्म लू में भी फुहारों की बातें
अज़ब है ये खुमार सावन का
जहां देखो टंगी है आँखे  अम्बर पर
हर शख्स है तलबगार सावन का
झूले हांथों में चर्चे उसकी आमद के
जाने कब हो जाए  दीदार सावन का
अम्बर पे बादलों की आहट से चौकना
कितना मुश्किल है इंतज़ार सावन का
जिसके पिया इस बरस नहीं आयेंगे 
पूछो उससे कहर बेकरार सावन का
इस तीज बुलावा आएगा मां के घर से
बिटिया को है झूठा ऐतबार सावन का
फसल होगी, जलेगा चूल्हा इस साल
उसकी ज़िन्दगी पे है इख्तियार सावन का   
बहा था चढ़ती कोसी  में पिछले बरस
करता है वो कातिलों में शुमार सावन का 

Monday, June 18, 2012

सुनो !मैं पढ़ रहा हूँ तुम्हे ...

सुनो !

तुमसे बात करना कविता लिखने जैसा है ..बेहद नाजुक बातें होती है तुमसे ...बातें नाजुक हां ...इन गुलाबी होंठो से खुदा ना करे कोई और बातें हो ..तो मैं कह रहा था तुमसे बात करना .....तुम्हारी उंगलिया अनजाने संगीत पर  ताल देती है हमेशा या तुम कीबोर्ड कुछ ना पढ़ी जा सकने वाली इबारत टाइप कर रही हो कई बार सोचा की पूछ ही लूं शायद बता दो पर रहने दो जिस दिन महाकाव्य पूरा होगा उस दिन तुम्हारे लबो से सुनूँगा..तसल्ली से ...ये जो आदत है ना तुम्हारी बातें करते हुए अपनी जुल्फों में उंगलिया फेरने की ,,मुझे बादलो में बिजली के तड़कने का एहसास देती है ..कभी आईने के सामने खड़े होकर जुल्फों में फसीं  इन उँगलियों को यूँभी देख लेना ....मुझसे बात करते करते अचानक जो मुस्कुराती हो वो मुस्कान हमेशा रहस्यों से भरी होती है ..एक दिन इस मुस्कराहट ...इन होंठों से जुड़े सारे रहस्य हल कर लूँगा मैं पढ़ रहा हूँ तुम्हे समझ रहा हूँ तुम्हे ...अगर समझ पाया तो ...कई बार ऐसा लगा मेरी बातों को समझने के लिए तुम्हे अपनी आँखों का सहारा लेना पड़ता है ...जब किसी बात पर ध्यान देते हुए तुम अपनी आँखे छोटी करती हो तो लगता है मेरे विचार अपनी आँखों के रास्ते खींच रही हो अपने दिमाग तक और समझ में आते ही फिर उसी आकार में लौट आती है तुम्हारी आँखे .... तुम्हे जब लगता है मैं तुम्हे नहीं सुन रहा मैं तब भी तुम्हे ही पढ़ रहा होता हूँ ..ना तुमसे निगाह हटती है ना किसी पल ख्यालों से तुम गायब होती हो ,कहा ना मैं तुम्हे पढ़ रहा हूँ ..जब तुम बेतकल्लुफी जताती हो और सामने कुशन के सहारे  अधलेटी  होकर बात कर रही होती हो ..तो तुम जानती हो मैं तुम्हारे जिस्म की लहर के साथ चढ़ उतर रहा हूँ ... मेरी नज्मो में जो नमक है वो तुमसे ही तो है उधार लिया है मैंने ...एक दिन इस नमक का क़र्ज़ अदा कर दूंगा ...उस दिन तक ..मुझे पढने दो..

Friday, June 15, 2012

मुझे झूठा ही रहने दो


मुझे टूटा ही रहने दो
मुझे बिखरा ही रहने दो
संवर कर क्या करूंगी मैं
मुझे उजड़ा ही रहने दो
नहीं मेरे  लिए दुनिया
ना दुनिया के मैं काबिल हूँ
जिला कर क्या करोगे तुम
मुझे मुर्दा ही रहने दो
मैं हो जाऊं जो खँडहर
तो बेहतर ही समझना तुम 

सजेगी ना कभी महफ़िल
मुझे वीरां  ही रहने दो
आंसू की चंद बूँदें है 

गवाह  मेरी तबाही की 
यकीन क्योंकर करेगा वो 
मुझे झूठा  ही रहने दो 

Wednesday, June 6, 2012

तुम संग

तुमने कहने सुनने के सारे रास्ते बंद कर दिए ..तुम तक मेरी कोई सदा ना पहुंचे ....चीखती रहूँ मैं इस खुले आसमां के नीचे और तुम जिसने अपने को बंद कर लिया है एक कोठरी में ...क्या नहीं जानते तुम तुम तक मेरी क्या किसी की आवाज़ नहीं पहुंचेगी  साथ में ना पहुंचेगी सुबह की धूप और रात की चांदनी ...बारिश के बाद मिटटी की सोंधी खुशबू से महरूम रहोगे ..शायद यही तुम्हारी नियति है या तुमने इससे अपनी नियति बना लिया है ...तुम ताजगी से दूर रहना चाहते हो चाहते हो बासी यादों में लिपटे रहना  पर जानते नहीं क्या वो अतीत था ..अतीत वर्तमान को काला कर देता  है और काले रंग पर कोई और रंग नहीं चढ़ता ,पर मैं भी कोशिश करती रहूंगी  सुनहले,रुपहले और गुलाबी रंगों के साथ तुम्हारे मन की दीवारों को रंगने  की किसी दिन तो तुम एक झरोखा खोलोगे और मुझे आने दोगे ...कही ना कही कोई संद  रह गई होगी मैं एक किरण बन उतर आऊंगी और तुम्हे एहसास दिलाउंगी रौशनी सबके लिए है दुनिया में तुम्हारे लिए भी और तुम इनकार न कर सकोगे ...मैं आशा हूँ और तुम्हे निराश कैसे छोड़ दूं ...सच है वो तुम्हारी ज़िन्दगी का हिस्सा थी पर अब पन्ने पलट लो नए पन्ने पर कुछ लिखो अगर मुझे मौक़ा दो तो शायद मैं कुछ लिख पाऊं ...आखिर प्यार करती हूँ तुमसे ..
(गीत की भावनाओं को समझिये .........)


Monday, June 4, 2012

तुम बिन ....

पुरानी तस्वीरे ..छूटे रूमाल आधी काटी टॉफी और पेड़ पर चाक़ू से बना निशाँ सब वही है सब गवाह है तुम मेरी थी मेरे साथ थी पर अब तुम्हारे सिवा सब यहीं है. कितना आसान होगा ना जो तुम्हे बे-वफ़ा कह दूं और मोड़ लूँ अपनी राहे ,तुम्हारे करीब से ना गुजरूँ ना तुम्हे सोचूं पर क्या करूं उस नहर का जहाँ पैर डाले दोपहर बिताते थे मेरी राह तुमसे तो मुड़ गई है. पर वो नहर ना जाने कैसे अब भी मेरे रास्ते में आ जाती है ...और तुम्हारी खिलखिलाहट फिर से महसूस करवा देती है ...क्यों नहीं तुमको भाता था माल में घूमना जो मैं बंद कर देता वहां जाना ...तुम्हे सिनेमा  का शौक भी नहीं था मेरे लिए थोडा आसान हो जाता ना ..पर तुम्हे पसंद था मंदिर ,गलियों के चक्कर लगाना रिक्शे में बैठना ...फूटपाथ पर लगी रेहड़ियों से मोलभाव करना ...फिर २ रूपये कम करवाकर मुस्कुराना ...हर दूसरी लड़की यही करती दिख जाती है और साथ में तुम भी ...तुम्हारे खुले बाल जब बस की हवा से मेरे चेहरे पर बार बार आते थे और ना मैं उन्हें हटाता  था और ना तुम कोई कोशिश करती थी बस उसी सुकून भरी छाँव में मैं कितनी गर्मियां काट लेता था . आज तीखी धूप मुझे भीतर तक जला रही है अपने ही जलते मांस की गंध ने सांस लेना दूभर कर दिया है. कितनी आसानी से चली गई ना तुम ...काश मैं जाता और तुम यहाँ होती तो महसूस करती तड़प को दूरियां ही बनानी  थी तो इसी जहां में रहकर बना लेती कसम से कुछ नहीं कहता ...पर उस जहां तक मेरी आवाज़ भी तो नहीं जाती होगी ना ......

Tuesday, May 29, 2012

"दाग अच्छे है "



चेहरे पर चेचक के दाग
जो गढ़  दिए थे किसी देव ने
यूँही खेल खेल में
मन पर पड़े दाग जब
कहा उसने प्रिय तो हो
पर प्रियतमा ना कह सकूंगा
अब चरित्र पर लगाते है लोग
अपने मनोरंजन के लिए
कहकहे लगाते है पीठ पीछे
और  तुम कहते हो
"दाग अच्छे है "

Tuesday, May 8, 2012

देखो रूठा ना करो ...


ओह तो ये तुम हो,,,, उसने अपनी उनींदी आँखे खोलते हुए कहा ,
तो रात के ढाई बजे अपने बेडरूम में तुम किसे एक्स्पेक्ट कर रही थी उसकी  की आवाज़ में झुंझलाहट थी ,
 "सलमान खान को ... उसने  मुस्कुराते हुए जवाब दिया.
जिनके पति रात देर से आते है उन्हें बीवी की नाराजगी डर रहता है ...पर तुम्हारा मैं क्या करूँ ?
मेरा क्या है मुझे कितनी प्राइवेसी देते हो तुम ...कितनी लकी हूँ मैं , और तो और बिलकुल पजेसिव भी नहीं हो मेरे बारे में तभी तो सुबह १० से रात ढाई बजे तक एक बार कॉल नहीं किया ....रिअली लव यू ,
क्यों भिगो -२ कर मार रही हो बेचारे गरीब को ...बताया ना ऑफिस में बहुत काम है बाद ये हफ्ता फिर हम दोनों साथ रहेंगे ....कहीं घूमने  का प्लान करे उसने मीठी आवाज़ में कहा
अरे नहीं ..इस दुनिया में सबसे अच्छी जगह अपना घर ...मेरा तो कहीं जाने का मन ही नहीं करता, पता नहीं लोगों को किस बात की कमी लगती है जो फोरन टूर पर या नैनीताल ,शिमला में ढूंढते है ...अभी तो गए थे दो साल पहले वो मुस्कुराते हुए बोली
आज देवी फुल मूड में है एक एक करके वार कर रही है हर वर पिछले से तीखा ... वो मन ही मन मुस्काया
बाय द वे, ये ताने तुमने कही से याद किये है या तुम्हारी क्रियेशन है ...सुपर्ब उसने शरारत से बोला
लो मैं तो तुमारी तारीफ़ कर रही हूँ और तुम्हे ताने लग रहे है ....ऐसा जीवन साथी किस्मत वालो को मिलता है
 बस तुम तारीफ़ ही मत किया करो ...चाशनी भरी बातें मेरी जान ले लेंगी
मैं तो तुम्हारे प्यार में इतनी अंधी हूँ के तुम यहाँ हफ्ते हफ्ते भी नहीं रहते पर मुझे लगता ही नहीं के तुम यहाँ नहीं हो .... ऐसे छाये हुए हो मेरे दिल ओ दिमाग पर ..... उस मुकाम पर पहुँच गया है मेरा प्यार ....
अरे सुनो कल शाम की flight  है सिंगापूर की पांच  दिन लगेंगे ..प्लीज़ packing कर देना
तुम हमारी  एनिवर्सरी पर  भी यहाँ नहीं रहोगे .... I HATE YOU  उसकी आँखे भीग गई
मैडम packing दोनों की करनी है उसने मुस्कुराते हुए दो टिकेट उसके हाँथ में रख दिए ....फिर



Friday, May 4, 2012

अधूरी

कुछ अधपढ़ी किताबें ,कुछ अधूरे लिखे ख़त , कुछ बाकी बचे कामों की लिस्ट के साथ आँख बंद करके लेटी मैं ....सोच रही हूँ आज किसी अधूरे सपने को पूरा कर लूं ..पर ये अधूरापन मुझे कभी पूरा होने नहीं देगा ,याद नहीं आता कभी कोई काम अंजाम तक पहुँचाया हो ..किताबों के मुड़े पन्ने इस बात की गवाही देते नज़र आते है के दुबारा उन्हें खोला नहीं गया है, एक पात्र के साथ दूसरा पात्र गड्ड मड्ड,  सब खुला दरबार कभी शरत चन्द्र की कहानियों में शिवानी की नायिकाएं चली आती और बंगाल से एक क्षण में भुवाली पहुंचा देती ...तो प्रेमचंद्र के हीरा मोती ..यहाँ वहा टहलते दिखाई पड़ते ...इन दिवास्वप्नो में कभी किसी नाटक का कोई पात्र अपने मंगलसूत्र की कसम खाता लगता ...और अचानक मेरा माथा झन्ना उठता .
मैं ऊन की लच्छी सी उलझ गई हूँ सिरा ना-मालूम कहाँ है ..और ना इतना संयम के इत्मीनान से सिरा खोज लूं ,
सच तो कहता था वो , ये अधूरापन ,confusion तुम्हारी परेशानी नहीं है तुम्हारा शौक है ,तुम्हे पसंद है ऐसे ही रहना ..तुमको सीधा सहज कुछ भी भाता ही कहाँ है ...तुम चीज़ों को अधूरा इसलिए छोडती हो के उसमें उलझी रहो ..और साथ में जो हो उसे भी उलझा लो के वो तुम्हारे अलावा कुछ ना सोच पाए .छोड़कर चला गया वो उसे सब पूरा चाहिए था ,मैं मेरा प्यार मेरा समय और मेरा समर्पण ...पर मैं राज़ी नहीं हुई इतनी आसानी से अपना अधूरापन छोड़ने के लिए बस वो चला गया मुझे इस अधूरेपन के साथ , पहली बार उसके जाने के बाद महसूस हुआ शायद वही है जो मेरी इस अंतहीन यात्रा को एक सुखद अंत दे सकता है ...उसके साथ मैं पूरी होना चाहती हूँ , मोबाइल में नंबर है ..पर उंगलियाँ कई बार अधूरा नंबर मिलाकर रुक चुकी है ..... कितना बिगड़ के पूछा था उसने , क्या तुम नहीं चाहती मैं तुम्हारे साथ रहूँ ...उफ़ कितने मासूम से लगे थे तुम और दिल किया तुम्हे गले लगा लूं ...पर ठहर गई  आज अचानक  मेरे भीतर उभर आता है तुम्हारा अक्स मैं किसी जादू से बंधी ....अधूरे ख़त फाड़ती हूँ ,अधपढ़ी  किताबें शेल्फ में लगाती हूँ , इस बार नंबर पूरा मिलाती हूँ .. सुनो मुझसे मिल सकते हो अभी .... बस दस मिनट में ....

Wednesday, April 11, 2012

हे सीता


सीता तुम थी शक्ति
फिर क्यों दी अग्निपरीक्षा
यदि न रहती मौन तब तुम
बच जाती फिर कितनी सीता
वन वन भटकी थी  तुम
पतिव्रत धर्म निभाने को
कठिन समय में त्यागा राम ने
एक मर्यादापुरुषोत्तम कहलाने को
क्यों न प्रश्न किये तब तुमने
क्यों न तब धिक्कार किया
सीता को बेघर करने का
तुमने ही अधिकार दिया
तुमने ली  समाधि जिस पल
तुम तो जीवन से मुक्त हुई
पर तुम जैसी कितनी सीतायें
जीते जी अभिशप्त हुई

Monday, April 9, 2012

मेरा गाँव (हाइकु)

तेज  गति  से
बढ़ा है मेरा गाँव
पिछड़े लोग .....

तरक्की हुई
चमका मेरा  गाँव
सिमटे  लोग .....

रंगी दीवारे
जगमग चौराहे
भौचक लोग .....

गोली धमाके
ढोल ताशे बजे औ'
सिहरे लोग .....

नकली ख़ुशी
झूठे उत्सव मने
सिसके लोग .....

चौपालों पर
जो साथ रहे ,अब
बिखरे लोग ......

Tuesday, April 3, 2012

गुनाह ज्यादा है ...वक़्त कम.

आज दिल कुछ अजीब से लम्हात में जी रहा है ,बड़ा सुकूं है जबके चारो ओर शोर है ...शरीर ऐसा शांत है मानो कितनी मुद्दत के बाद गहरी नींद सोये हो, आस पास की हलचल धीरे धीरे कम होती लग रही है और फिर एक मनचाहा सन्नाटा सा पसर जाता है,आज लगता है उपरवाला मुझे स्पा treatment  देने के मूड में है ,मेरा माथा  धीरे धीरे सहलाकर सारी हलचले शांत कर रहा है ,कोई दर्द नहीं कोई ख़याल नहीं ..बस एक गहरा नीला रंग वही रंग जो सुबह सूरज उगने से पहले आसमां का होता है, आज से पहले ऐसा लगता था मानो सुकूं बस मौत के बाद ही मयस्सर होगा ... खैर मौत किसने देखी है ! इस नीले रंग में ये सफ़ेद सा साया किसका है क्या खुदा मेरे सामने आ गया ..... अब कैसे हो ...कैसा महसूस कर रहे हो ...एक दूर से आती गहरी आवाज़ .....अचानक तेज़ हो जाती है और सारे शोर ज़िंदा अचानक सफ़ेद साए के इर्द गिर्द कई चेहरे उगने लगते है ...मैं इन्हें पहचानता हूँ आर ये मुझे पहचानते है ...कौन है ये लोग ...जो  फ़िक्रमंद निगाहों से मुझे देख रहे है ........ मेरा सुकूं अचानक बुलबुले सा फूटता है ,और मैं चिहुक उठा हूँ जैसे किसी ने तेज़ चिकोटी काट ली ....
" चक्कर कैसे आ गया " मेरी पास की सीट पर बैठने वाली निशा पूछती  है , पिछले दस मिनट से बेहोश हो.
आँख पूरी तरह खुलती है ,शरीर  इतना कमज़ोर महसूस हो रहा है जैसे मानो पत्थर उठा रखे हो ...सारा सुकूं कपूर की तरह उड़ गया. ढेर सारे सवाल हिदायतों और फलो के साथ मुझे रूम पर छोड़ गए. जानता हूँ ज्यादा वक़्त नहीं है मेरे पास .... डॉक्टर बता चुका है ..कभी भी विदा हो सकता हूँ दुनिया से ...क्या पता आज ही वो दिन था ...फिर वापस क्यों लौट आया ... एक क़र्ज़ बाकी है शायद चुका दूं तो बरी हो जाऊं ...दादी कहती थी सारा हिसाब यहीं धरती पर चुकाना पड़ता है. अच्छा बुरा सब कुछ ...आज दादी तुम बहुत याद आ रही हो ...अगर तुम इतनी जल्दी ना जाती तो शायद आज मैं कुछ और होता ...घर पर बात करूँ ? पिछले तीन साल से ना मैंने कोई फोन किया ना कोई फोन आया .... कहूंगा क्या "मैं मरने वाला हूँ " .. वो तो पहले ही कह चुके है "तू हमारे लिए मर चुका है "... एक बार कोशिश करूँ ? जाने दो जब मैंने अपनी ज़िन्दगी खुद चुनी थी और किसी की बात नहीं सुनी थी तो मौत के लिए उनको क्यों परेशान करूँ ..... सच में हर इंसान को ज़िन्दगी में एक बार मौत को करीब से ज़रूर देखना चाहिए ... आँखे बंद करने से पहले मौत इंसान के भीतर की आँखे खोल देती है.... अपनों के आंसू जो नाटक ,ड्रामा लगते थे आज कितने सच्चे लग रहे है ... अपने लिए ये तन्हाई मैंने खुद ही चुनी थी ...मैंने हर वो काम किया जो मुझे मना किया गया ... हर नियम तोड़ा,जिसने मुझे प्यार किया उसका मैंने फायदा उठाया ...नीरू आँख बंद करके मुझपर यकीन करती रही और मैं इस्तेमाल ...घर वालो को यकीन था वो बहु बनेगी उनके घर की ...सबके सपने आशाये जुड़े थे ...और कितनी आसानी से मैं उसे छोकर आगे बढ़ गया ....मेरा सारा परिवार उसके साथ खड़ा था और मैं एक दम अलग, उन्होंने मुझे कोसा ,अपने संस्कारो को कोसा ...मां ने अपनी कोख तक को कोसा पर ..पता नहीं किस धुन में मैं घर से निकल आया ...अनजान शहर में ...अपनी शर्तों पर जीने के लिए ... मैंने नहीं सोचा था ..मेरे हिसाब किताब का दिन इतनी जल्दी आ जाएगा ... गुनाह ज्यादा है ...वक़्त कम...सज़ा तो यहीं पूरी  करनी होगी ...

 

Thursday, March 29, 2012

चलो कुछ भूल जाएँ ......

इंसा पैदा हुए थे हम
हुए ना जाने कब विषधर
किसी अंधियारे कोने में
केंचुली छोड़ आयें
चलो कुछ भूल जाएँ  ...... 

उम्र बीती जिरह करते
जब भी उगला ज़हर उगला
किसी गुमनाम पीर पर
ज़हर का तोड़ पाए
चलो कुछ भूल जाएँ ..........
 
युग बदले ना तू बदला
रहा उथले का तू उथला
किसी गंगा में यूँ डूबें
के  मुक्ति पा ही जाए
चलो कुछ भूल  जाएँ............
 
बड़ी  रंजिश सहेजी हैं 
तुमने अपनी किताबों में
किसी पार्क की बेंच पर
इरादतन छोड़ आयें
चलो कुछ भूल जाएँ ....
 
मनभर  बोझ  लेकर
सफ़र कैसे करोगे तय
मंजिल पास में ही है
अंत आसाँ बनाये
चलो सब  भूल जाएँ ....

Thursday, March 22, 2012

सुन री सखि ................. जब होए अँधियारा


सुन री सखि .................
जब होए अँधियारा
घर से बाहर मत निकलो
बड़ा शहर अंधियारी सड़के
घर से बाहर मत निकलो
पढ़ी लिखी  भई सयानी
कौन भरम में जीती हो
नर्स बनो या बनो पायलट
सारे काज कर लेती हो
सूरज डूबे तुम छुप जाओ
घर से बाहर मत निकलो
बढे देश तो बढोगी तुम भी
आसमान छू लोगी तुम 
आठ के बाद मुझको बतलाओ
घर कैसे पहुँचोगी तुम
थानेदार भी हाँथ जोड़ते
घर से बाहर मत निकलो ....
सुन री सखि

Thursday, March 15, 2012

एक नया वादा कर ले


अपनी तन्हाइयों का
मुझसे सौदा कर ले
आज दिल कहता है
एक  नया वादा कर ले
बहुत हुए रेशमी साए
जुल्फों के तेरे शानो पर
सपनीली  आँखों को चल
धूप में सूखा कर ले
वफ़ा मिली भी मुझे
और निभाई भी दिल से
क्यों ना किसी लम्हा
दिल से कोई धोखा कर ले 
महंगी है दुनिया बहुत
महंगे है जीने के सवाल
खुद इन ख्वाहिशो को
थोडा सा सस्ता कर ले
बलिस्त भर कम पड़ जाते है
मेरी पहुँच से तारे-आसमां 
ज़रा नीचे एड़ी के
एक टुकड़ा हौसला रख दे

Wednesday, March 7, 2012

फागुन की बतिया


(1)
सुन पिया
भई बावरी
टूटे काहे अंग
चले हवा
देह दुखे
मुख मलिन
ढंग बेढंग

(2)

ओ गोरी
सुन बावरी
सब फागुन
का खेल
भोर -सांझ
में बने नहीं
मौसम ये बेमेल


(3)
सुन पिया
सखि काहे
प्रीत की है 
ये चाल
वैद ही इसमें
रोग दे
इस कारन
तू बेहाल


(4)
सखि की
माने सुमुखि
साजन की
माने नाहि
लगे जो
गले पिया के
रोग सभी
मिट जाए

Monday, March 5, 2012

एक नूर भरी शाम.

एक नूर  भरी शाम...
मेरे पास सपनो का एक ढेर है उस ढेर को मैंने सौप दिया है उसे और वो उसमें से चमकीला सा कोई सपना चुनता है और सच कर देता  है और हाँथ पकड़ के कहता है और सपने देखो ...एक सपना था जगजीत जी को सुनने का ..मौका भी था जब जगजीत जी और गुलाम अली साहब सीरी फोर्ट दिल्ली आये थे ...एक टिकेट के फासला उम्र भर का पछतावा दे गया ....
बस अब और कोई पछतावा अफोर्ड नहीं कर सकते ,हाँथ में टिकेट ,आँखों में चमक लिए ,सीरी फोर्ट के बाहर लगी कतार में खड़े हो गए ...हर उम्र के लोग , जवान दिखने की कोशिश करते बुजुर्ग , बुद्धिजीवी टाइप की बाते करते कुछ मेकप से रंगे चेहरे ,कुछ बेहद सादा कुछ संजीदा सब एक जगह इकठ्ठा , एक सफ़ेद कुरता पैजामा नोकदार जूतिया पहने बुजुर्ग को देखने के लिए उस फ़रिश्ते की एक झलक पाने की बेचैनी साफ़ थी ...
कार्यक्रम शुरू हुआ ..भूपेंद्र जी की सुरीली आवाज़ से उन्होंने याद किया कुछ अनमोल लम्हों को जब वो और जगजीत साहब साथ थे ....मौहोल खुशनुमा था एक के बाद एक तरानों ने समां बांध दिया मिलाली जी की जादुई आवाज़ का भी जब साथ मिला तो दिल झूम उठा दिल ढूंढता है ,होके मजबूर मुझे , हुज़ूर इस कदर भी ना इतरा के ,बीती ना बिताई रैना ..और भी ढेर से नगमें ...शाम को यादगार बना गए ...
फिर वो लम्हा आया जिसका इंतज़ार था ..वो फ़रिश्ता  जिसे लोग गुलज़ार कहते है और वो अपने को ग़ालिब का मुलाजिम  सामने आया पलके झपकना भूल गई और यकीन करना पड़ा ये सच है सपना नहीं ... चाँद सा झक सफ़ेद बुजुर्ग है पर इतना सम्मोहन की आप अपने आप को भूल बैठे ...हॉल में एक लड़की चीख भी पड़ी "I LOVE YOU गुलज़ार" .. एक के बाद एक नज़्म कभी आँखों के कोर भीगे ,तो कभी ठहाके लगे ,वो पन्ने पलटते गए और हम दुआ करने लगे ये शाम यूँही चलती रहे , कितनी बारीकी से पकड़ते है हर लम्हे को यार बात को ...लगता है जिन तिनको को लोग बेकार समझ कर उड़ा देते है गुलज़ार उनसे भी कविता रच डालते है ...कुछ भी जाया नहीं होता और अगर मैं ये शाम जाने देती तो शायद ये ज़िन्दगी जाया हो जाती... हॉल में भी बोला था यहाँ भी वही बोलूंगी
"I LOVE YOU गुलज़ार" .....



Saturday, March 3, 2012

बैरी साजन बैरी फागुन ..


बैरी साजन
बैरी फागुन
स्वांग रचाए
नित नित मो से
क्षण में  तपे
क्षण में बरसे
सौं धराये
नित नित मो से
ना वो माने
ना मैं हारी
रंग चढ़ाए
नित नित मो पे
वो मुस्काये 
तो मैं बलि जाऊं
मान कराये
नित नित मो से
बैरी साजन
बैरी फागुन ....

Monday, February 13, 2012

गुफ्तगू प्यार की

प्यार की खुशबू कच्चे आम सी होती है,जो तन मन के सारे तंत्र जगा देती है ,देखो बहस की कोई गुंजाईश नहीं है उसने चहकते हुए कहा ...वैसे मेरी हिम्मत बहस करूँ और वो भी तुमसे ना -बाबा, तुम प्यार पर एक कुकरी बुक क्यों नहीं लिख देती title रहेगा "जायके मोहब्बत के ". तुमको मैं पगली लगती हूँ ना ..इसमें लगने की क्या बात है उसने मुस्कुराते हुए कहा,अमा यार इतने स्वादों की बात करती हो पर खुद एक दम तीखी हो मिर्च की तरह ... एक पल को उसके गाल दहक उठे ..फिर संभल कर बोली "जानते हो लेह लद्दाख में लोगों को मिर्च की गर्मी ज़िंदा रखती है " ...तुम गई हो क्या लेह .... मेरे याद में कभी अपने कसबे के बाहर पैर तो रखा नहीं तुमने . माना दुनिया नहीं घूमी मैंने पर जानती तो हूँ ना ..इन किताबों से ..टीवी से कितना कुछ बताते है ये ..और अपनी जानकारी का पिटारा मुझपर खाली कर देती हो ..और मैं दब जाता हूँ तुम्हारी इन बातों के बोझ तले...इतनी बुरी लगती है मेरी बातें ..तो ठीक है अब तुमसे कभी बात नहीं करूंगी और ना तुम मुझे फोन करना ....
बस यही तो सुनना चाहता था मैं ...जब तुम तुनक कर रूठती हो तो पता नहीं क्यों बहुत मासूम सी लगती हो ...अभी तीखी थी अभी मासूम तुम तय कर लो मैं क्या हूँ ..............
गुफ्तगू प्यार की
चलती रहेगी सुबह तक
दिल के मारो को
एक पल भी आराम कहाँ
फुर्सत मिले
तो सोचे दुनियादारी
इश्क से ज़रूरी
इनको
कोई काम कहाँ

Wednesday, February 8, 2012

श्राप को भी वरदान करो

पतन नहीं
उत्थान करो
रण का तुम
आह्वान करो
लक्ष्य भले ही
दुष्कर हो
अर्जुन सा
शर-संधान करो
भय का जो
अंधियारा हो
विफल प्रयास जो
सारा हो
एक ध्येय पर
अड़ जाओ
देह की माना
सीमा है
अन्तर की  सीमा
मत बांधो
 
श्राप को भी
वरदान करो

Thursday, February 2, 2012

हे दशानन !


है वो मनुष्य
गुण-अवगुण से भरा
नहीं जुड़ता मन
राम से मेरा
बहन के अपमान से
पीड़ित होता है

भाई के धोखे से
दुखभर रोता है
सुख दुःख सब
सच्चे है उसके
प्रतिशोध में भरा
नहीं जुड़ता मन
राम से मेरा ....

 

Monday, January 30, 2012

फिर आये रूठते मनाते दिन ..

गुनगुनी धुप में
गुनगुनाते  दिन
फिर  आये
रूठते मनाते  दिन ..
उलझाकर लटें
ताव में आते दिन
तिरछी भवों पर
भाव खाते  दिन
फिर  आये
रूठते मनाते  दिन ..

कमर के बल पर
निसार जाते दिन
सुर्ख रुखसार पर
तमतमाते दिन
फिर  आये
रूठते मनाते  दिन ..
छिटक कर
दूर जातें दिन
सुबक कर
पास आते दिन
फिर  आये
रूठते मनाते  दिन ..
भरी दोपहर में

उकताते दिन 
उनबिन उबासियों से 
काटे दिन
फिर  आये
रूठते मनाते  दिन ..

Thursday, January 12, 2012

उदास है कोई

सुर्ख  मौसम में भी उदास है कोई
होश गुम है बदहवास है कोई
आसुओं  से जल गए रुखसार जिसके
अपने साए को भी  भी नागवार है कोई
आहटों को तौलता रहता है
सन्नाटे को तोड़ता रहता है
सडको पर दौड़ता रहता है
मानो गुनाहगार है कोई

Monday, January 9, 2012

तुम मुझे उम्मीद ला दो ..

(1)
तुम मुझे उम्मीद ला दो
है वही कम ज़िन्दगी में
आँखे मूंदे बैठे है कब से
अँधेरे या तेज़ रौशनी में
पड़ गए गहरे स्याह से
ख्वाब मेरे प्यार वाले 
जमा किये पल खोले जब भी
राख निकली पोटली में
तुम मुझे उम्मीद ला दो ..
(2)

जब गहन कुहासा छाया हो
और देर शाम सूरज ना दिखे
मन में सन्नाटा सडको सा
उदासी में ना उम्मीद दिखे
तब ढलती शाम की उगती धूप
एहसास दिलाने आती है
कितनी भी अंधियारी निशा रहे
पर सुबह जरूर आती है