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Monday, February 28, 2011

मैं तुमको पहचानता हूँ

 मुझे आज भी गुमां है
मैं तुमको   पहचानता हूँ
तुम्हारी बोलिया सुनकर
तुम्हारा शहर जानता  हूँ
तेरी पायल की आवाजें
तेरी सीढ़ी से मेरे दर तक
उन्हें सुनने की चाहत में
मैं हर शब जागता हूँ
तुम्हारे इत्र की खुशबू
जो खस सी ख़ास होती थी
उसी जादू की  ख्वाहिश में
दुआ दिन रात मांगता हूँ
मेरी  हर नज़्म फीकी है
नमक तुमसे ही आता था
उन बे-स्वाद मिसरों के वास्ते
तुम्हारा स्वाद मांगता हूँ 
तुम्हीं ने तो तो सौपे थे
वो काले धागे नज़र वाले
उनकी गाँठ खोलने को
तुम्हारा साथ चाहता हूँ


Friday, February 25, 2011

मैं जितना पास आउंगी तुम उतना ज़ुल्म ढाओगे

मुझे उम्मीद है तुमसे
के मेरा दिल दुखाओगे
मैं जितना पास आउंगी
तुम उतना  जुल्म ढाओगे
मेरे सपने मेरी बातें
तुम्हे फ़िज़ूल लगते है
बिछा दूं फूल जितने भी
तुम्हें बबूल  लगते है
मिलता है सुकूं तुमको
बहे जो दर्द  आँखों से
सदियों से हुआ गायब
रूमानी चाँद  रातों से
बचे जो आस  के तारे
फूंककर उन्हें बुझाओगे
मेरे लिखे वो महके ख़त
अपने हांथों से जलाओगे
मैं जितना पास आउंगी
तुम उतना ज़ुल्म ढाओगे


Saturday, February 19, 2011

अपनी चाहत पा जाउंगी

आज फिर मैं वही सवाल पूछूंगी
जानती हूँ जवाब क्या आएगा
नए जबाब की चाहत में
वही साल दर साल पूछूंगी
मैं नहीं थकूंगी मांगने से
ना मांगू तो क्या पा जाउंगी
रीती थी तब भी मैं
अब भी रीती रह जाउंगी
सजदा सुबह शाम करो
तो माथे पर भी निशा पड़ते  है
टूटते है जितने ख्वाब
सब मेरे तलवो पे आके गड़ते हैं
ना सजाऊं अगर ख्वाब नए
क्या लहूलुहान होने से बच जाउंगी
जो पाना है वो बहुत मुश्किल है 
पर ज़माने को आसानी से हासिल है  
लगता है इस बार की कोशिश में
अपनी चाहत पा जाउंगी

Tuesday, February 15, 2011

जली फिर रात रूमानी....

थी कल की शाम रूमानी
छलकता जाम रूमानी
निगाहे थी निगाहों तक
नज़र  की प्यास रूमानी
सहेजा भी संभाला भी
सीने से दिल निकाला भी
नहीं था सुर्ख इतना कुछ
जली  फिर रात रूमानी
अजब हालात थे शायद
मेरे जज्बात थे शायद
ना तुम बोले ना मैं बोली
चुपी ना रात रूमानी
कहें कैसे सुनें कैसे
ये किस्से प्यार वाले है
बहुत मीठे है गुड जैसे
यहाँ जितने निवाले है
तुम्हे पाया तो पा बैठी
मैं ये सौगात रूमानी

Tuesday, February 8, 2011

सखि बसंत मादक अधिक...


सखि बसंत मादक अधिक ,करू मैं कौन  उपाय
जिन कारण मैं बावरी ,वो मोहे मिल जाए

उपवन में उत्सव रचा, आवो जी ऋतुराज
करूँ श्रृंगार मैं सुमन का ,बने बिगड़े काज


नयनन ने सुन लीन्ह नयन नयन की बात
री सखि मारक बहुत कामदेव की घात

प्रेमपगी ऋतू बसंत है ,सजन नहीं है पास
भाग्य भया विपरीत मम रही ना कोई आस

पीरी चुनर ओढ़कर ऐसा करूँ श्रृंगार
दमकू मैं कनक सम रवि मलिन पड़ जाए

Monday, February 7, 2011

कई साल पहले ...लिखी थी ये ..किसी ख़ास के लिए

एक  रोज़  मैंने  सोचा  तुमको  एक  rose   दूं  मैं
पर  दिल   मेरा  बोला  क्यों  रोज़  rose दूं  मैं
एक  रोज़  rose लेकर  तुम  ज़िन्दगी में आओ
मैं  तो  चाहू  हर  रोज़  rose लाओ
पर  आज  rose day है  मेरा  है  तुमसे  कहना 
मेरी  ज़िन्दगी  में  हर  रोज़  फ्रेश  rose बनकर  रहना ....