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Tuesday, November 30, 2010

तेरी बाते जामुन जामुन

कुछ तुम  पागल 
कुछ मैं पागल 
 साथ बटोरें
चल  कुछ बादल
कभी तुम अंधड़
कभी मैं बिजली
कहीं तुम गरजे
कहीं मैं तड़की
जब तुम रूठे
कुछ तुम बरसे
जब मैं बिगड़ी  
कुछ  मैं पिघली
तेरी बाते
जामुन जामुन 
मेरी बाते
इमली इमली
दिन बीता
तुझे मनाते
रूठी रूठी
रात भी छिटकी
आओ अब तो 
साथ निभाओ
कहती है
पाँव की चुटकी

Thursday, November 25, 2010

मुझसे भी तो बाटों चाँद

पतला पतला काटों चाँद
मुझसे भी तो बाटों चाँद
ओस बन टपके आंसूं
ऐसे तो ना डाटों चाँद

सिन्दूरी सुबह कजरारी रात
अपना रंग भी छाटों चाँद

करवा चौथ पे तू भी देखे
इस धरती पर कितने चाँद

बरसे जो सिक्को की माफिक
बारातों में लूटो चाँद
लटके लटके थके नहीं तुम
कभी तो नभ से टूटो चाँद


Friday, November 19, 2010

मैं काजल हो जाती हूँ

 
मुझे जलना भा रहा है
मैं तो यूँही जल जाती हूँ 
तुम शमा बनोगे बोलो ना
मैं परवाना हो  जाती हूँ
तेरी खुशबू मन को भाये
मुझे मस्त करो और बहकाए
तुम कली बनो और इठलाओ
मैं भंवरा बन मंडराती हूँ
इतनी दीवानी चाहत में
मुझको मेरा होश नहीं
तुम मुक्त पवन के झोके से
और मैं आँचल हो  जाती हूँ
तुम हो प्यासे मैं रस से भरी
फिर रहे अधूरे अधूरे क्यों
तुम फैला दो अपनी बाहें
और मैं बादल हो जाती हूँ
तुम कितने भोले भाले से
जी भर देखूं तो नज़र लगे
मुझको भर लो तुम आँखों  में
और मैं काजल हो जाती हूँ
 
 
 
 

Wednesday, November 10, 2010

मैं आ रही हूँ

Jaisalmer

कुछ लम्हे चुराकर
रेत में दबाने जा रही हूँ
रेत में डूबकर
ज़िन्दगी पाने जा रही हूँ
बवंडर यादों का
समंदर वादों का
सुनहरी शाम को
गुनगुनाने जा रही हूँ
हवा ने बुलाया है
नया रुख दिखाया है
सीमेंट में घुट ना जाए
सपनो को धुप
दिखाने जा रही हूँ
सुना है तन्हाई भी
गीत गाती है वहां
समय की घडी
रुक जाती है वहां
दफ़न होकर भी
मुक्त नहीं होते
उन सायों में
समाने जा रही हूँ
 

मैं आ रही हूँ

Wednesday, November 3, 2010

अबकी दिवाली ना जाए खाली

अबकी दिवाली ना जाए खाली


मुझको तारो से सजा दो

तारे गर हो दूर बहुत तो

दो चार हीरे ही तुम ला दो

दीप सजे तो रात सुनहरी

दीपमालिका मुझे बना दो

लौ से मैं कहीं झुलस ना जाऊं

सोने के कंगन गड़वा दो

जगमग जगमग हर घर आँगन

द्वार द्वार पर सजी रंगोली

रंग अगर मिटने डर हो

सतरंगी चूनर दिलवा दो

जितना चाहूं उतना पाऊं

जितना पाऊं उतना चाहूं

बनी रहूँ मैं तेरी प्रेयसी

ऐसा कुछ मंतर पढवा दो