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Sunday, September 26, 2010

चलो मैं बे-वफ़ा हो जाती हूँ

इतनी नजदीकी अच्छी नहीं


चलो कुछ खफा हो जाती हूँ

अपना ही मज़ा है बेचैन करने का

चलो मैं बे-वफ़ा हो जाती हूँ



तेरे सामने आऊं भी नहीं

तुझे महसूस हर लम्हा रहूँ

मांगे तू भी साथ मेरा शिद्दत से

चलो मैं खुदा सी हो जाती हूँ



कब तक नशीली रात सी रहूँ

होंठो पे छिपी बात सी रहूँ

जान जाए ये ज़माना मुझको

चलो चटख सुबह सी हो जाती हूँ



जितना जानो उतना उलझ जाओ

इतना उलझो ना सुलझ पाओ

ना जाने किस वक्त ज़रुरत पड़े

चलो मैं दुआ सी हो जाती हूँ



कभी देखो तो अनजान लगूं

कभी दिल की मेहमान लगूं

एक झलक देख लो तो दीवाने हो जाओ

चलो मैं उस अदा सी हो जाती हूँ

Tuesday, September 21, 2010

क्रमश: आगे क्या ?

"अरे काका सठियाय गए हो का ? तनी आपन भेस तो देखा " लल्लन ने चौकते हुए कहा,
 "अब इ ससुरा लड़का लोग चैन से रहने भी नहीं देत है आप से मतलब रखे तो ठीक " मन में बडबडाते हुए बिसेसर काका बोले.
"का हुई गवा " गाँव के सबसे बड़े ठलुआ और बिसेसर के हमउम्र निहाल चाचा ने हुक्का गुदगुदाते हुए पूछा,

"तनी काका का भेस तो देखा ,ज़िन्दगी भर सूती कुरता और धोती में निकाल दीन अब साठ के हों को है तो पालिस्टर की शर्ट पैंट पहिन के घूम रहे हैं ".

"साठ के हुई हैं तोहार बाप, हमार तो अभे पचपन भी पूरे नहीं हुए हैं " बिसेसर बाबु तिलमिला गए और जलती निगाओ से लल्लन को देखा तो मुह में खैनी दाबे मुस्कुरा रहा था.

"अरे बिसेसर तोहार तो रंगे दूसरो लग रहो हैं " अब निहाल की भी हसी छुट गई

"आज भोर में ना जाने कौन मनहूस का चेहरा देख लिए थे जो ,जे मनहूस सामने पड़ गए अब ससुर के नाती सामने से हट भी नहीं रहे है , मिस जी इंतज़ार कर रही होंगी " बिसेसर जी के चेहरे से बेचैनी साफ़ झलक रही थी

"कहीं जाय को देर हो रही हो तो हम अपनी फटफटिया पर अभई छोड़ देते है " लल्लन ने जले पर नमक डालते हुए कहा.पर बिसेसर ने अनसुना कर अपने कदम तेजी से प्रौढ़ शिक्षा केंद्र की तरफ बढा दिए .

दो महीने से बिसेसर बाबु स्कूल पढने जा रहे थे और स्कूल में पढाई से ज्यादा उनका ध्यान मिस जी में लगने लगा था,
बड़े भैया,भाभी के गुजरने के बाद उन्होंने दोनों बच्चों की ज़िम्मेदारी अपने सर पर उठा ली,उनको शहर भेजा उनकी पढाई का इन्तेजाम और सारी व्यवस्था करने में उम्र इतनी तेजी से निकल गई शादी के बारे में सोचने का समय ही नहीं मिला,बच्चे अपने में व्यस्त हो गए, काम सँभालने के लिए नौकर चाकर थे ही.
जब जिम्मेदारियां ख़तम हुई तो बिसेसर बाबु को अपने अकेले होने का एहसास सालने लगा, तो बच्चों ने जिद की आप पढ़ लिख लो तो आप का समय भी कटेगा और काम सँभालने में आसानी हो जायेगी.
मिस जी कितनी समझदार हैं कितना आसानी से हमार परेसानी समझ जाती है ,कितना बेर एक प्रश्न पुछो कबही नराज़ नहीं होती, कौनुह अच्छे परिवार से हुई हैं बड़ी संस्कार वाली है, जे गाँव-देहात की लुगाइन की तरह नहीं...कपडा भी सलीका से पहिनती है....मन में सोचते हुए बिसेसर स्कूल पहुँच गए,
क्रमश:
"इस कहानी के लिए मुझे इससे अच्छा शीर्षक नहीं मिला,यहाँ तक तो लिख गई आगे क्या करूँ भ्रमित हूँ ,आप भी अंत लिख डालिए ,मैं अकेली क्यों परेशान हूँ ?

Friday, September 10, 2010

दिल को निचोड़ कर

दिल को निचोड़ कर दर्द सुखा दिया


दो बूँद टपकी थी पोछा लगा दिया

शिकन बहुत थी करवटों की चादर पर

जोश की इस्त्री से उसको मिटा दिया

नमक की लकीरें पलकों के मुहाने पे

भाप की गर्मी से उड़ा दिया

मुए अरमान चिपक गए कलेजे से

आह भरी और सब पिघला दिया

उनका आसरा था वो आये भी नहीं

हमने भी हमसफ़र को अजनबी बना दिया

कुछ लकीरों ने कुछ हालात ने तय किया

अच्छे खासे इंसान को आशिक बना दिया

Saturday, September 4, 2010

पिघलते है युही अक्सर

पिघलते है युही अक्सर


तेरे आगोश में हम भी

सुलगकर राख होते है

कभी ज्यादा कभी कम भी

युही जब सर्द मौसम में

तन्हाई सताती है

झुलस जाते है अन्दर तक

छू जाए जो शबनम भी

तेरे नज़दीक होने से

गुनगुनाती है मेरी धड़कन

नए से सुर उमड़ते है

कुछ तीव्र कुछ मध्यम भी

छाए हो आकाश में बादल

तेरे आने की आहट हो

सिहर उठते है दस्तक से

मेरे दर भी और दामन भी