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Monday, May 31, 2010

बंद लिफाफे में गुलाब आता है

आज भी ....


ख़त लिखते है तो जवाब आता है

बंद लिफाफे में गुलाब आता है

देख कर उनको भारी हो जाती है पलकें

रुखसार पर रंग लाल छाता है

अब भी.....

खस गर्मियों में लगा कर निकलते है

सुबह- शाम दोनों वक़्त संवरते है

कलफ लगी सूती चुन्नी की ओट से

मूंगे से सुर्ख लब दमकते हैं

पर....

वो ना आया जिससे वादा था

यकीन जिसपर खुदा से ज्यादा था

आज ज़माने भर की मजबूरियां जताता है

कल जो चाँद लाने पर आमादा था

Friday, May 28, 2010

बहुत गर्म दोपहरी है

उन्होंने समेट कर जुल्फे


ढीला सा जुडा बनाया है

जो इठलाता हुआ

गर्दन पे सरक आया है

मेरी साँसे उसके

खुलने पर ही ठहरी है

अब साए को तरसाओ मत

बहुत गर्म दोपहरी है

Tuesday, May 25, 2010

उफ़ गर्मी (कहानी )

चिपचिपी गर्मी ,तपती धरती ,आग उगलता आसमान ,ना रुकने वाला पसीना .. उस पर तवे पर पड़ी रोटी को सेकना, मीरा की झुंझलाहट बढती जा रही थी ...सारे घर में इन्वेर्टर का कनेक्शन है एक रसोई में छोटा सा पॉइंट लगवा देते तो कम से कम टेबल फेन लगा कर काम तो हो जाता .


पर किसी को कहाँ पड़ी है मेरी, दिन के २४ में से १० घंटे तो रसोई में ही निकल जाते है ..इतनी उमस नहाया बिना नहाया सब एक बराबर. गला भी सूख रहा है सब टी वी के सामने बैठे है,किसी से इतना भी नहीं होता के एक ग्लास पानी ही पिला दे.

ये भी शाम को ऑफिस से लौटते है तो ऐसा दिखाते है मानो ये तो काम करके आये है और मैं बिस्तर पर पड़ी पड़ी आराम कर रही हूँ . सारा दिन A C में बैठ कर आते है.

जितनी तेज गैस की लौ थी उतनी तेजी से मीरा के मन में विचार जल रहे थे, बचपन से ही गर्मी का मौसम उसे सख्त नापसंद था, पसीने में भीगने का ख़याल ही उसका मन घबरा देता, शादी के बाद जिम्मेदारियों को संभालने में उसने कमी नहीं की पर .. तपन से भरे ये चार महीने उसकी जान निकार देते ,ख़ास कर रसोई में जाना ..शादी के दस साल बाद थोड़ी सहन करने की ताकत तो आ गई थी पर अब भी कभी कभी मन बेचैन हो उठता ,फिर कोई अच्छा नहीं लगता.

विचारों में खोई थी अचानक एहसास हुआ किसी ने आँचल खींचा, देखा तो तीन साल की प्यारी सी सुमी खड़ी थी

"मम्मा इधल आओ " तुतलाते हुए हुए मीरा को बुलाया
"बेटा मम्मा अभी काम ख़त्म कर के आती है " मीरा ने बोला
"प्लीज़ एक मिनट " सुमी ने लाड से बोला
मीरा झुकी "बोल बच्चा क्या बात है "
"देथो मेले हाँथ कितने ठन्डे है " अपने हाँथ मीरा के गाल पर लगा दिए
"आपतो गलमी लग रही होगी ना, ठंडा ठंडा कूल कूल "
सुमी के भोलेपन में मीरा  सब भूल गई

Sunday, May 23, 2010

मेरी तौबा (लघुकथा )

"कुछ सोच रही हो " मैंने उसका हाँथ हौले से दबाकर पूछा

"नहीं तो " नेहा के चेहरे पर शरारत की लहर दौड़ गई
अब वो आसानी से बताएगी नहीं ,जब तक मैं उससे ८ -१० बार पूछ नहीं लूँगा .
चार सालों से जानते है एक दुसरे को ऑफिस में मिले,दोस्त बने फिर एहसास हुआ हम अपना रिश्ता दोस्ती से आगे ले जा सकते है ...दो महीने बाद शादी है .
"अब तुम क्या सोच रहे हो वरुण " उसने बच्चों की तरह मेरे गाल चिकोटते हुए कहा .
"क्या हम शादी कर के ठीक कर रहे है ?" मैंने हौले से उससे पूछा
"बड़ी जल्दी पूछ लिया दो महीने बाद पूछते " उसने तुनक कर जवाब दिया
बस इसी अदा पर तो मैं अपनी ज़िन्दगी वार सकता था.
"अरे इतना बड़ा फैसला ले रहे है ज़िन्दगी का कही कुछ भूल हो गई तो बस सारी ज़िन्दगी तबाह " मैंने अपनी हसी दबाते हुए कहा.
"मिस्टर वरुण, अगर कोई फैसला लेना है तो अभी ले लो, ये शादी करनी है या नहीं " नेहा कुछ तल्ख़ हो उठी.
"मैं तो तुम्हारे भले के लिए ही कह रहा था " मैं उसके सब्र का थोडा और इम्तेहान लेने के मूड में था.
"अगर ऐसा है तो ये सब अभी ख़त्म करते है इसी में मेरा भला है,वैसे भी मुझे भी लगता है शायद लम्बे समय तक ये रिश्ता ना निभा पाऊं, मेरे पापा भी यही कह रहे थे ,बस मैं समझ नहीं पा रही थी बात कैसे शुरू करूँ " नेहा ने भरे गले से बोलती जा रही थी
" तुम्हारे मन में भी यही शंका है ना , चलो मैं सोच रही थी तुम्हारा दिल कैसी दुखाऊं" नेहा ने राहत की सांस लेते हुए कहा

अब सदमें में आने की बारी मेरी थी नेहा की आवाज़ कही दूर कुएं से आती लग रही थी,नेहा को खोने के ख़याल से दिल बैठ गया
"मैं तो मज़ाक कर रहा था " मेरी आवाज़ काँप रही थी
नेहा मेरा चेहरा गौर से देख रही थी
"मैं भी तो मज़ाक कर रही थी " नेहा खिलखिला कर हंस पड़ी .
मैंने घबराकर उसको गले से लगा लिया, सब शांत था बस हमारी धडकनों का शोर था .
मेरा दिल कह रहा था
"इस लड़की से मजाक ,मेरी तौबा "

Thursday, May 20, 2010

लौकी पी रहे है लौकी खा रहे है

(बैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता के लिए एक व्यंग रचा था आपसब के साथ बाँट लेती हूँ )



बड़ी दर्द भरी कहानी है हमारी ,ऐसा युद्ध लड़ा है जैसा ..पूछो मत .ताई जी के बेटे की शादी का कार्ड देखकर ..कितने पकवानों के थाल आँखों के सामने घूम गए थे ..आँखे इमरती..तो दिल में रसगुल्ले फूट रहे थे ..कचोरी और आलू की सब्जी की खुशबू तो मनो निगोड़ी नाक को कहा से आने लगी थी ...पिछली बार माठ नहीं चख पाई थी,इस बार तो सारी कसर निकालूंगी , मरे शहर की शादियों में देसी चीज़ों को तरस ही जाओ ..हमें नहीं भाता कांटिनेंटल,


पतिदेव को भी समझा दिया जाने का इरादा बता दिया.. हवाई टिकेट करवाए तो बजट का बाजा बजना ही था ..

नई साड़ी का प्लान छोड़ कर अपनी अलमारी में से कुछ पहने का सोचा ...भाई साब यही तो हो गया लोचा..पता नहीं चोली कुछ छोटी सी लगी सोचा नाप के देखते हैं ..भाई वो तो बिगड़ गई कोहनी पर जा कर अड़ गई ..हमको स्थिति का आभास तो था पर इतने बुरे हालात होंगे इसका अंदाज़ ना था....एक एक करके सब नाप डाले ..पर ....
पतिदेव रात को आये तो बिस्तर पर बिखरे कपडे देख कर घबराए "कोई चोरी हो गई क्या ".
हमने आँखों में आंसू भर कर पूछा आपने बताया क्यों नहीं , वो मुस्कुरा कर बोले

"प्रिये माना तुम कामिनी से गजगामिनी के पथ पर अग्रसर हो
पर मेरे प्रेम को कोई कमी नहीं पाओगी
बहुत बड़ा है दिल मेरा
हर साइज़ में फिट हो जाओगी "
हमने भी मन में ठान लिया बात में छिपे व्यंग को पहचान लिया ,स्लिम्मिंग सेंटर के चक्कर लगा रहे है लौकी पी रहे है लौकी खा रहे है,
अब हम मोह माया से ऊपर उठ गए है ,तुच्छ मिठाई ,भठूरे,पूरी ,टिक्की पाव भाजी सब हमको सिर्फ कैलोरी मात्र नज़र आते है,पर देखते है ये संन्यास हम कबतलक निभाते है,जितनी मंद गति से हमारा वजन घट रहा है उससे १०० गुना तीव्र गति से पतिदेव के बटुए से नोट.
पर ये सब हमारा उत्साह नहीं घटा पायेंगे ..शादी में तो हम वही साडी पहन कर जायेंगे ,जो नई फोटू खिचवायेंगे ब्लॉग पर लगायेंगे ...आप सब को दिखाएँगे

Monday, May 17, 2010

क्षणिकाए (दर्द)


वो लड़की

झांकती  झरोखे से

शायद कही धोखे से

उसकी झलक दिख जाए

सारी तृष्णा मिट जाए



वो लड़का

कुछ बेखयाल सा

बिगड़े सुरत-ए-हाल सा

रस्सी सा एठा है

सबसे खफा बैठा है



चार आँखे

दो पथ निहारती

दो सबकुछ वारती

शायद एक हो जाए

एक दूजे में खो जाए



दो अर्थियां

जिन्होंने जन्मा था

उन्होंने मारा है

जाति का एहसान

ऐसे उतारा है

Friday, May 14, 2010

कंधा (कहानी )

उन दोनों का रिश्ता बेहद अजीब था शादी के बीस साल के बाद भी एक अबोलापन था जो दोनों के बीच पसरा रहता ...हर काम मशीन की तरह से चल रहा था ,इस रोबोटिक ज़िन्दगी में भावनाए शायद शुरू से नदारद थी .सुबह उठने से रात सोने तक सब कुछ तय था .


एसा नहीं था की वो बहुत खुश थी या वो बहुत सुकून में था पर दोनों के बीच बहुत लंबा फासला था,परिवारों ने जोड़ा था इस बेमेल रिश्ते का बंधन, वो शहर का प्रतिष्ठित डॉक्टर और ये गाँव की कम पढ़ी लिखी पर समझदार लड़की ,जो बहुत जल्दी ये समझ गई थी की उनके जीवन में उसकी कितनी जगह है, पर रिश्ता तो था न तो बीज भी पड़े पर कभी फूल नहीं बन पाए, दो बार माँ बनते बनते रह गई बच्चेदानी कमजोर थी उसकी किस्मत की तरह. वो उसका कन्धा चाहती थी रोने के लिए पर सफ़ेद कड़क शर्ट पर उसका स्पर्श कभी पहुँच नहीं पाया ,कई बार शर्ट हांथो में पकड़ कर रोई थी ,बल्कि ज्यादातर अपनी सारी बातें उनकी शर्ट से ही कर लेती,जब से उसने ऐसा करना शुरू किया उसका मन हल्का रहने लगा,रात के अंधेरों में तन से तो वो डॉक्टर साहिब के साथ होती पर मन शर्ट के साथ, उसमे आये परिवर्तन वो महसूस तो करते पर पूछ नहीं पाते,एक साथी एक कंधे की तलाश उसकी कल्पना की दुनिया में समाप्त हो गई थी कभी कभी वो जवाब भी सुन लेती. अकेले कमरे में बात करने पर कई बार लोगो को उसकी मानसिक स्थिति पर शक होता ,सो वो कमरा बंद करके रहती .वो खुश थी अपनी दुनिया में

एक दिन सुबह डॉक्टर साहब अखबार पढ़ रहे थे ,और वो प्रेस वाले से कपडे ले रही थी,कपडे गिनते ही उसकी चीख निकल गई...शर्ट प्रेस वाले की गलती से जल गई थी,एक पल में वो अपने होश खो बैठी ...उसके मुह से ना जाने क्या क्या बातें निकल रही थी ..सभी स्तब्ध थे . डॉक्टर स्साहिब ने उसको रोकने की कोशिश की ...वो बेहोश हो चुकी थी .

अवसाद का अजगर उसे पूरी तरह से निगल चुका था ,मन और तन से बेहद कमज़ोर हो चुकी थी ,इतने सालों में पहली बार डॉक्टर साहिब ने उसे गौर से देखा था ..वो अपने व्यक्तित्व की परछाई मात्र रह गई थी...डॉक्टर साहिब उससे पूछना चाहते थे पर कोई सूत्र नहीं मिल रहा था बात शुरू कहाँ से करे . ग्लानि का बोझ ज़बान को हिलने नहीं दे रहा था,उसकी इस हालत के ज़िम्मेदार वो ही तो थे

"ये तुम्हारे साथ कब से हो रहा है " बड़ी मुश्किल से उन्होंने पूछा .

उसकी अवसाद भरी आँखों में पीड़ा की लहर दौड़ गई एक सुकून का सितारा चमका और बुझ गया. और सितारे के साथ उसकी जीवन ज्योति भी .



बहुत बड़ा दिन था आज जिस कंधे के लिए वो सारी उम्र तरसी थी ,उसको वो कंधा ही नहीं मिला था बल्कि उनकी आँखों में कुछ पश्चाताप के आंसू भी .

Thursday, May 13, 2010

दिल में उतर रही हूँ मैं


कितना संभल कर चल रही हूँ मैं

फिर भी ना जाने क्यों फिसल रही हूँ मैं

आइना हर रोज़ दिखाता है निशाँ नए

इस कदर ना जाने क्यों बदल रही हूँ मैं

जब से चढ़ी है नज़र में खुमारी

किसी के दिल में उतर रही हूँ मैं

कल सरी महफ़िल शमा कतरा गई मुझसे

या खुदा इस कदर निखर रही हूँ मैं

मेरी साँसे मदहोश करती है उन्हें

इस गुरुर से अभी तक उबर रही हूँ मैं

"सोनल" ये सारे आसार है मर्ज़-ए-मुहब्बत के

कुछ हवा बहकी है कुछ बिगड़ रही हूँ मैं


Tuesday, May 11, 2010

प्रेम के क्षण (१)


काँप गई

आलिंगन में
उन्मुक्तता है
इस बंधन में
पंख लगे है
धडकनों को
उबरू कैसे
इस उलझन से


कितने मादक कितने मोहक

नैन तुम्हारे
मौन में भी कितने मुखर
नैन तुम्हारे
इन नैनो ने विकल किया
ये तो सोये
पर जागे रात रात भर
नैन हमारे


दिन-ब-दिन

तुम चढ़ रहे हो
सीढ़िया सफलता की
मैं थक रही हूँ
नहीं चल पाती
उस रफ़्तार से
शायद मैं फिर
जुटा सकूँ
कतरा कतरा हिम्मत
जो हाँथ थाम लो
तुम प्यार से

Thursday, May 6, 2010

चाँद को बख्श दो

सुन सुन के आशिकी के तराने


पक गया है

चाँद को बख्श दो

वो थक गया है

शक्ल जब अपने यार की

चाँद से मिलाते है

आसमान में चाँद मिया

देख देख झल्लाते है

अपनी सूरत पहचानने में

दम उनका चुक गया है

चाँद को बख्श दो

वो थक गया है

बे- बात की बात

सारी रात किया करते है

हाल-ए-दिल सुना कर

जबरदस्ती

चाँद का सुकून

पीया करते है

तन्हाई,बेवफाई ,आशनाई

के किस्सों से

उसका माथा दुःख गया है

चाँद को बख्श दो

वो थक गया है

कभी दोस्त कभी डाकिया

कभी हमराज़ बनाते है

उसकी कभी सुनते नहीं

बस अपनी ही सुनाते है

इस एकतरफा रिश्ते से

दम उसका घुट गया है

चाँद को बख्श दो ..........

Monday, May 3, 2010

हर रंग में छांट लूं ...

चलो एहसासों को

दुपट्टे में बाँध लूं

तुम्हारी छुअन को

किनारी सा टांक लूं



लिपटे जो मुझसे

तो तुम नज़र आओ

काँधे से फिसलो तो

बाँहों में उतर जाओ



दांतों तले दबा लूं

तो हया से लगो

ऐसे बनो मेरा हिस्सा

कभी न जुदा से लगो



इतने रंग भर दो

के अम्बर को बाँट दूं

दुपट्टे की तरह तुमको

हर रंग में छांट लूं

Saturday, May 1, 2010

गालियाँ सीखूं क्या ?

http://bharhaas.blogspot.com/2010/04/blog-post_9062.html

आज अनायास ही एक ब्लॉग पर पुन: जाना हुआ इसी ब्लॉग पर सानिया -शोइब प्रकरण पर एक लेख पर एक छोटी सी टिपण्णी डाली थी,जिसमें मैंने गालियों  के प्रयोग को गलत माना था जिसके प्रतिउत्तर में एक पूरी की पूरी पोस्ट पढने को मिली ...


मुझे लगता है गाली देकर बात करने में आप अपना आक्रोश चाहें जसे भी निकाले पर वास्तव में आप अपमानित अपने आप को ही कर रहे होते है क्योंकि ये गालियाँ  आपकी जननी ,बहिन ,पत्नी ,पुत्री समस्त नारी जाति से जुडी होती है, यदि किसी पुरुष ने कुछ गलत किया है तो आप गाली उसकी माँ को देते है,भारत में गालियों को सुभाषित की तरह बोला और दोहराया जाता है ..जुबान पर ऐसे चढ़ा लेते है मनो वाक्य में गाली नहीं शामिल करेंगे तो कुछ व्याकरण सम्बन्धी त्रुटी हो जायेगी

मुझे मेरी माँ ने सिखाया था "अच्छा पढ़ोगी ,तो अच्छा सोचोगी, अच्छा बोलोगी और अच्छा लिखोगी "


शायद ना मैं गालियाँ सुन पाती हूँ और ना ब्लॉग पर पढ़ पाती हूँ.