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Thursday, December 17, 2009

वापसी (भाग-१ )

कहते है जब ज़िन्दगी बोझिल सी लगने लगे तो थोडी देर ठहर कर फिर आगे बढ़ना चाहिए, आज मैं भी थोडी देर के लिए रुक गई हूँ ऐसा नहीं है की मेरी ज़िन्दगी बोझ बन गई है पर क़दमों में थोडा भारीपन सा महसोस हो रहा है, आज ऑफिस से लौट कर थकावट महसूस कर रही हूँ ,दोनों बच्चे अभी कोचिंग से लौटे नहीं है आठ बजे तक आयेंगे ,अभी काफी समय है मेरे पास आराम करने के लिए, कपडे बदल कर फ्रेश हो कर आई तो सामने किरण चाय का प्याला लिए मेरा इंतज़ार कर रही थी , किरण मेरी कामवाली की बेटी बचपन से मेरे घर में रही अब ओ परिवार का एक हिस्सा सी बन गई है,उसके ग्यारहवी की परीक्षा अभी ख़त्म हुई है ,सो अपनी माँ की मदद करने आ गई ,


चाय पी कर आँख बंद कर के लेट गई ....तो अचानक अपनी माँ का चेहरा आँखों के सामने आ गया आज ना जाने माँ की बहुत याद आ रही है ,मन करता है उड़ कर पहुँच जाऊं .बॉम्बे से कानपुर इतना आसान नहीं तो मुश्किल भी नहीं,

आज रात को अजय से बात करती हूँ ,घर से ऑफिस, ऑफिस से घर सुबह छह बजे से रात बारह बजे तक का समय मशीन की तरह लगे लगे कहाँ बीत जाता है पता नहीं चलता...सोचते सोचते कब आँख लग गई पता ही नहीं चला ......अचानक कानों में आवाज़ आई ,इस समय लेटी हो तबियत तो ठीक है ,उनींदी आँखों से देखा तो अजय खड़े थे ....एक दम से उठ कर बैठ गई घडी साढ़े आठ बजा रही थी "अरे बहुत समय हो गया ,बच्चे आ गए क्या ,किसी ने उठाया क्यों नहीं "

अजय मुस्कुरा कर बोले कोई बात नहीं कभी कभी आराम कर लेना चाहिए ,तभी बच्चों की आवाज़ आई "मॉम डैड डिनर सर्व हो गया है जल्दी आइये "

डिनर टेबल मेरे घर में एक ऐसी जगह है जहा सारा परिवार बैठ कर पूरे दिन का हाल चाल सुनाता है ,दीक्षा अपने फ्रेंड्स की बातें बता रही थी बीच बीच में अर्नव उसको छेड़ रहा था,अजय उस नोक झोक का मजा ले रहे थे .अचानक दीक्षा बोली "मॉम आप यहाँ होकर भी यहाँ नहीं हो क्या बात है "

मैं खुद भी बात करने वाली सो धीमी सी आवाज़ में बोली "सोच रही हूँ कुछ दिन माँ के पास रहूँ ,कभी साल हो गए उनसे मिले हुए बहुत मन कर रहा है ". अर्नव मुस्कुरा कर बोला "तो ये बात है मैं अभी रिज़र्वेशन करवा देता हूँ यहाँ से देहली की फ्लाईएट ले वहां से ट्रेन " आपको जब तक मन करे रहना फिर मैं और दीक्षा भी आ जायेंगे आपको लेने हमें भी काफी समय हो गया है नानी से मिले हुए ".

कानपुर जाने का सोच कर मन फ्रेश हो गया अगले ही दिन ऑफिस में छुटियों की अर्जी दे दी जो मंज़ूर भी हो गई, मन फिर से अल्हड सा हो गया ,माँ और भाभी को फ़ोन से आने का बताया तो दोनों बहुत खुश हुई वैसे भी मेरी भाभी ,भाभी कम सहेली ज्यादा है आज भी घंटों फ़ोन पर बतियाते है ....जाने से पहले सारे काम निपटा लिए पैकिंग सबके लिए शौपिंग और भी बहुत कुछ .

जाने की ख़ुशी में समय के मानों पंख लग गए और मैं अपने कानपुर स्टेशन पर खड़ी थी, आँखें बेसब्री से अपने परिचित चेहरे ढूंढ रही थी ,तभी कंधे पर किसी का हाँथ महसूस हुआ पलती तो बड़े भैया खड़े मुस्कुरा रहे थे, गले लगा कर बोले "कैसी है बिट्टो ",

बिट्टो मेरा प्यार का नाम, सुधा मैडम सुनते सुनते मैं मैडम ही बन गई थी ,और चंचल सी बिट्टो ना जाने कहाँ खो गई थी, भैया के गले लगी तो आँखों के कोरों पर नन्हे नन्हे दो मोती झलक आये ,

भैया सर पर चपत लगा कर बोले " दो बच्चों की माँ बन गई इतनी बड़ी कंपनी में अफसर, पर रही तो झल्ली की झल्ली ,रो क्यों रही है ". मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया "कुछ भी बन जाऊं भैया पर आपके लिए तो आपकी बिट्टो ही रहूंगी ".

सारे रास्ते कितने सारे सवाल थे मन में सबके लिए पूछूंगी नीता ताई कैसी है , उनकी बहु को कुछ हुआ , राधा मौसी के बच्चे भी तो अब शादी लायक हो गए होंगे , बगल वाले शर्मा अंकल की तबियत कैसी है, अपनी ज़मीन पर पैर रखते ही जैसे सारे भूले बिसरे नाम और रिश्ते वापस याद आ गए,

जहाँ बॉम्बे में ट्रैफिक को लेकर परेशान रहती हूँ ,वही कानपुर की सड़कों पर लगा रिक्शा,साईकिल ,हाँथगाड़ी का जाम भी अपना सा लग रहा है,बिलकुल सुकून ना ऑफिस जाने की जल्दी ना कोई टेंशन. गली में घुसते हुए ताज़ी उतरती कचोरी और जलेबी की खुशबू नें याद दिलाया की भूख लग रही है ,भैया हँस कर बोले तुझे घर छोड़ कर तेरे लिए ताजा नाश्ता ले आऊंगा , आज भी भैया मेरा चेहरा बढ़ लेते है, आखिर उनकी इकलौती लाडली बहन जो थी जिसे भैया कभी बहुत दूर नहीं जाने देना चाहते थे बंगलोर का रिश्ता उन्होंने इसीलिए मना किया था, पर उनको क्या पता था जिस बहन को वो लखनऊ ब्याह रहे है वो बॉम्बे जा कर रहेगी...शरू में हर राखी दूज पर दिल भारी हो जाता ना भैया की उदासी कम होती ना उनकी बिट्टो के आंसू रुकते,

पर समय बहुत बलवान होता है धीरे धीरे मैं अपने घर और ऑफिस में व्यस्त होती गई, पर फोन से बराबर बात होती रही, अपने घर की गली में मुड़ते ही मानों बचपन वापस लौट कर आ गया मैं गर्दन घुमा कर देख ही रही थी की घर के सामने गजानन चाचा के घर पर ताला लटकते देख कर परेशान हो गई , वो घर ऐसा था जिसके दरवाजे हमेशा सभी के लिए खुले रहते थे....    क्रमश:

Saturday, December 5, 2009

शक

नारी का तन उपजाऊ होता है तो मानव का मन , हंसी आ रही है ना, स्त्री शारीर में अगर बीज पड़े तो नै ज़िन्दगी जनम लेती है , अगर मानव मन में बीज पड़े तो शक का ऐसा पौधा जन्म लेता है जिसकी जडें पीपल से भी गहरी होती है ,काटते काटते हांथों में छाले  पड़ जाते है ,आँखों में आसुओं का सैलाब उमड़ आता है जो उतरने का नाम नहीं लेता , पर वो जिद्दी जड़े थोड़े थोड़े समय बाद फिर हरी हो जाती है या अपनी चुभन से अपने होने का एहसास दिलाती हैं,


नीरजा की डायरी के पन्ने पलटते हुए अनुज की निगाह कुछ पंक्तियों पर अटक गई " आज देव का इंतज़ार बहुत लंबा हो गया है पता नहीं कहाँ रह गया ढेर साड़ी बातें बतानी है ,बहुत खुश होगा ना वो ", अचानक नीरजा ने अनुज से डायरी छीन ली "क्या करते हो तुम भी ना ,किसी से बिना पूछे उसकी वक्तिगत डायरी नहीं पढ़ा करते ",

"ओह तो अब मैं पराया हो गया और तुम किसी हो गई " अनुज ने तल्ख़ अंदाज़ में कहा, "और फिर इस डायरी में ऐसा क्या है जो तुम मुझसे छिपाना चाहती हो "

"अरे बाप रे तुम तो नाराज़ हो गए " नीरजा ने अनुज को छेड़ते हुए कहा .

"तुम्हारा और देव का रिश्ता कैसा था " अनुज ने सीधे अपने मन की बात नीरजा के सामने रख दी , नीरजा जानती थी अनुज कभी घुमा-फिरा कर बात नहीं करते पर जो बात उनके मन में धंस जाए उसको निकलना बहुत मुश्किल होता है.

"मैंने बताया था न मैं और देव पडोसी होने के साथ सहपाठी भी थे, बचपन से साथ पले बढे थे "

"तो वो देवदास था और तुम उसकी पारो " अनुज ने तिरछी निगाहों देखा और मुस्कुरा दिया, अनुज की मुस्कराहट में छिपे व्यंग को समझना नीरजा के लिए मुश्किल नहीं था.

"मैंने बता दिया ना मेरा और देव का सम्बन्ध दो अछे दोस्तों का था उससे अधिक कुछ भी नहीं "

"तो मैं कब कह रहा हूँ दोस्ती से ज्यादा था " अनुज ने तीर छोड़ने जारी रखा 

"अब मैं तुम्हारी कल्पना के घोड़ों पर तो लगाम नहीं लगा सकती तो तुम स्वतंत्र हो अपने मन के घोड़े  दौडाने के लिए ". नीरजा व्यर्थ के वाद विवाद में नहीं पढ़ना चाहती थी सो वो कह कर भूल गई .

दिन बीते पर अनुज के मन में पड़े शक के बीज में कोंपल फूटने लगी ,नीरजा के व्यवहार ,आचरण , सब में वो वह खाद ढूँढने लगा तो उसकी सोच को सही साबित कर दे.

अपनी बने हुई कलोल कल्पना की दुनिया में धीरे धीरे अनुज क़ैद होने लगा, नीरजा अगर श्रृगार करती तो उसको लगता वो देव के लिए है ,अगर ओ किसी किताब को पढ़ते पढ़ते मुस्कुरा देती तो तो अनुज को नीरजा के देव के ख्यालों में खोये हुए होने का भ्रम घेर लेता, हालाँकि अभी तक अनुज ने देव को देखा नहीं था पर अपनी शक की दुनिया में वो उसको कई बार मूर्त रूप दे चूका था , कई बार उसका मन होता नीरजा से फिर कुछ पूछे , पर उस दिन के नीरजा के तेवर याद कर उसकी हिम्मत जवाब दे जाती आखिर पूछे भी तो क्या , डायरी की उस एक पंक्ति के अतिरिक्त और कुछ भी तो नहीं था,.

अगर नीरजा को उसके मन में छिपे चोर का पता चल गया तो शायद वो उसे छोड़ भी सकती है , उसके स्वाभिमानी व्यक्तित्व से भी वो भली प्रकार परिचित था. अपना बुना जाल अब उसका जीना मुश्किल कर रहा था.

"हाय जीजू , कैसे हो " नीरजा की छोटी बहिन नलिनी की आवाज़ से अनुज मनो वर्तमान में लौट आया

"बस मैडम आप आ गई है तो सब बढ़िया ही बढ़िया हो जाएगा " अनुज ने मुस्कुराते हुए कहा , नलिनी अपनी परीक्षा के सिलसिले में आई थी, १ हफ्ते की परीक्षा के बाद नीरजा ने बहिन को रोक लिया, नलिनी के जीवंत व्यक्तित्व से घर भर में मनो रौनक छ गई, नीरजा और अनुज में बीच जो सन्नाटा पसारने लगा था उसकी छाया और प्रभाव अब धूमिल होने लगे.

"अरे दीदी देव भैया को बेटा हुआ है , मम्मी बता रही थी मैंने नंबर ले लिया है चलो विश करते हैं " नलिनी ने मम्मी से बात करके  फ़ोन रखते हुए कहा

देव का नाम सुनते ही अनुज ने बुरा सा मुह बनाया मनो पहले कौर में बाल आ गया हो, जीजा जी के चेहरे पर हुए इस भाव परिवर्तन को नलिनी ने महसूस किया, उसको कुछ समझ में नहीं आया.उसने अपनी यह सोच नीरजा के सामने रखी .

"दीदी कोई प्रॉब्लम है क्या, देव भैया का नाम सुनते ही जीजू के चहरे पर अजीब सा भाव आ गया था "

" ऐसी तो कोई बात नहीं है एक दिन हम लोगों में कुछ डिस्कसन हुआ था बस, तुझे भ्रम हुआ होगा " नलिनी की बात को टालते हुए नीरजा ने कहा , नलिनी उसके उत्तर से संतुष्ट हो कर सोने चली गई पर नीरजा स्वयं संतुष्ट नहीं हो पाई,अनुज के वयवहार में आये परिवर्तन को वो महसूस तो कर रही थी पर उसकी जड़ में देव होगा ये उसने सोचा नहीं था, उस दिन के बाद दोनों अपने कामों में व्यस्त हो गए थे नीरजा तो उस बात को भूल चुकी थी, उसे महसूस हो रहा था उस दिन के बाद अनुज सहज नहीं हो पा रहा था , या तो ऑफिस से आकर वो लैपटॉप खोल लेता या सो जाता उनके बीच बस मतलब भर की बात ही होती, नीरजा जिसको काम की अधिकता समझ रही थी वो कही कुछ और तो नहीं ...............

नलिनी को विदा कर नीरजा अनुज के पास आकर बैठ गई और उसके कंधे पर अपना सर रख दिया, "कितना सूना लग रहा है ना नलिनी के बिना , "हूँ " अनुज ने संछिप्त सा उत्तर दिया

"क्या हुआ थके से लग रहे हो ऑफिस में बहुत काम है क्या " नीरजा ने अनुज का हाँथ सहलाते हुए कहा

"ऐसा कुछ ख़ास नहीं है ,बस यूँ ही " अनुज बोला

"बहुत दिन हो गए चलो कहीं होकर आते है, मेरा भी अभी प्रोजेक्ट ख़त्म हुआ है , एक अच्छा सा ब्रेक लेते है " नीरजा ने अपनी बाहें अनुज के गले में डाल दी

अनुज ने नीरजा के तरफ देखा उसका चेहरा एक दम मासूम सा लगा , उसने उस चेहरे में कुछ  ढूँढने की कोशिश की पर वहां तो बस उसे अपने लिए प्यार नज़र आ रहा था, नीरजा बोले जा रही थी और अनुज का मन एक अंतर्द्वंद में फँसा हुआ था, एक तरफ उसकी अपनी बने कल्पना थी दूसरी ररफ नीरजा जो बच्चो सी निश्छल , उसके चेहरे पर भाव तेजी से आ जा रहे थे, तभी उसके मन में एक प्रश्न कौंधा

"मैं आखिर शक कर क्यों रहा हूँ " कभी नीरजा के किसी भी बात से महसूस भी नहीं हुआ की वो मेरे अलावा  किसी और को चाहतो भी है ,अब उसने अपनी सारी सोच को दिमाग की चलनी से छानना शुरू किया, शक के कीड़े अलग हो गए और रह गया उनका निर्मल रिश्ता.

पिछले दिनों किया गया अपना व्यवहार उसकी आँखों के सामने आने लगा , जितना बचपना उसने किया था , ये तो शुक्र है नीरजा को मेरे मन के पागलपन का एहसास नहीं है वरना तो मैं निगाह भी नहीं मिला पाता.

अचानक उसकी आँखों में नमी तैर गई , अपनी अपरिपक्वता के चलते वो अपनी नीरजा को खोने चला था ये सोचते ही उसका दिल घबरा उठा ,और उसने नीरजा को गले से लगा लिया.

बहुत दिनों बाद आज वो और नीरजा अकेले थे उन दोनों के बीच में कोई नहीं था ...देव भी नहीं