Pages

Wednesday, October 21, 2009

स्मृतियाँ-हरसिंगार (1)

ऑफिस से निकलते ही दिमाग में घर के काम भर जाते है,दूध लेना है घी भी ख़त्म हो रहा है ,जाते ही वाशिंग मशीन लगनी है....ओफ़्फ़. ऑफिस में घुसने के बाद शायद हमारा दिमाग अपना रोल बदल लेता है उन आठ घंटों में घर की कोई बात जैसे याद नहीं आती जैसे किसी ने पौज़ बटन दबा दिया हो जो छः बजते वापस प्ले हो जाता है.....
अरे ये खुशबू कहाँ से आ रही है अचानक मेरी गर्दन घूम गई, बहुत जानी पहचानी सी जैसे मेरा हिस्सा रही हो अचानक निगाह पड़ी हरसिंगार के पेड़ पर जो कुछ कलियों और अधखिले फूलों से लदा हुआ था....मुझे लगा जैसे पेड़ मुझे देखकर मुस्कुरा रहा हो और पूछ रहा हो "बिटिया मुझे तो तुम भूल ही गई " मैंने कुछ ज़मीन पर पड़े फूल उठाये और घर आकर वापस बचपन में पहुँच गई ....

कम से कम बीस साल पहले अपनी खिड़की के सामने हरसिंगार को देखना हमेशा अच्छा लगता था ,गहरे रंग के कुछ मखमली और कुछ खुरदुरे से लगते पत्ते जो सारे साल शांत रहते पर क्वार का महीना आते ही बौरा जाते ....सफ़ेद फूल नारंगी डंडी और मीठी मीठी खुशबू दूर दूर तक फ़ैल जाती...
मुझे हमेशा हर्सिगार का पेड़ बहुत उदार लगता जिसमे रात को फूल खिलते और सुबह-सुबह उन्हें मोतियों की तरह बिखेर देते और अगर कोई डाल हिला दे तो बस ताजे ओस में भीगे फूल आसमान से बरस उठते जो हमको हिंदी फिल्मों के द्रश्य याद सिलाते जहाँ नायक नायिका पर फूलों की डाल से फूल बरसाता है ........
मेरी दादी हर मौसम में सवा लाख हर्सिगार के फूल अपने ठाकुर जी को चढाती...और हम बच्चों की सेना उनको फूल लाकर देती..रात को पेड़ के नीचे चादर बिछा देते और सुबह-सुबह वो चादर सैकडों फूलों से भरी होती मानो हरसिंगार नतमस्तक होकर खुद लड्डू गोपाल जी को अपने फूल अर्पित कर रहा हो.
दादी सौ सौ के ढेर बनाती और अपनी कॉपी में लिखती....सूखे हुए फूलों की डंडी चन्दन के साथ पीस देती तो चन्दन का रंग और चटख हो जाता....
सवा लाख पूरे होने के बाद जितने फूल होते वो हम बच्चों के खेल का हिस्सा बन जाते ..गुडिया की माला,अपने गजरे ,फूलों की रंगोली और न जाने क्या क्या...
सच है कुछ खुशबू ,रंग और द्रश्य हमारे अस्तित्व का हिस्सा बन जाते है
आज मैं अपने शहर से सैकडों किलोमीटर दूर हूँ,बचपन को गए भी अरसा हो गया पर जब भी हरसिंगार के पेड़ के सामने गुज़रती हूँ और फूलों को हाँथ में लेकर एक बार अपनी दादी को याद करती हूँ......
मैं नहीं भूली न दादी आपको और ना हरसिंगार को.....

Thursday, October 15, 2009

शुभ दीपावली

क्या वो गीतों की तरह गुन-गुन होगी
या वो पायल की तरह रुन-झुन होगी
क्या वो कलियों की तरह मुस्कुरा देगी
या वो झरने की तरह खिल- खिला देगी

खुश होगे तो आँखों में नज़र आएगी
दिल भरी होगा तो गालों पर बिखर जायेगी
क्या वो तारों सी झिल्मिलाएगी
या वो जुगनू सी टिमटिमाएगी

हाँ वो रोशन होगी हज़ार शमाओ से
कह देगी खामोश निगाहों से
उम्मीद करते हैं धनवैभव शुभ लाभ होगा
हर लम्हा दिवाली का चमकेगा हमारी दुआओं से

Wednesday, October 14, 2009

मुहब्बत

बहुत खुबसूरत एहसास है मुहब्बत
इससे कैसे कोई इनकार करे
हर दिल की तमन्ना होती है
की उसको कोई प्यार करे

जो कहता है नहीं यकीन इस शह पर
असलियत में डरते है चोट खाने से
सिर्फ यही ऐसा जज्बा है
जिसमे मज़ा आता है दर्द पाने में

अपनी हसरतों को और ना छिपाओ अब
अपने महबूब के सामने खुलकर आजाओ अब
ज्यादा से ज्यादा इनकार हे तो कर देगा
दिल के इस एहसास को और ना दबाओ अब

Friday, October 9, 2009

चाँद और वो

एक रस्म निभाने को चाँद को देखा ,
आँचल की ओट में माहताब को देखा
दोनों पर नूर चढा था गज़ब का,
खुशकिस्मती हमारी जी भर के शबाब को देखा

एक चाँद के इंतज़ार में ,दूजा चाँद बेकरार था
दगा नहीं देगा मौसम, इस का ऐतबार था
उम्मीद का जुगनू चमका कई बार आँखों में
आती जाती उम्मीद को रुख पर बार बार देखा

हम भी थे इंतज़ार में के शायद करम हो जाए
उस बेचैन नज़र से ये दर्द कुछ कम हो जाए
हाँ अब सुकून आया है दिल-ए-बेताब को
चाँद को देख कर जब उसने मुझे
आँखों में भरकर प्यार देखा

Monday, October 5, 2009

दोपहर

एक सुस्त दोपहर में लेते हुए जम्हाइयां

करते है कोशिश ढूढने को  अपनी परछाइयां 
मन वैसा रीता -रीता सा जैसी  सूनी है सड़के
झुलस न जाए तपिश से धुप में पड़े सपने
तेज धुप से चुन्ध्याती आँखें दुखने लगती है
जब नींद  आती है तो पलके झुकने लगती है
है कैसे लम्बे लम्बे दिन और कैसे जलते तपते दिन
कैसे बीते तन्हाई में बोलो साजन तेरे बिन
तुम बाँहों में जो ले लो तो थोडी सी ठंडक पड़ जाए
सो जाऊं मैं चैन से ये गर्म दोपहर कट जाए