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Thursday, December 17, 2009

वापसी (भाग-१ )

कहते है जब ज़िन्दगी बोझिल सी लगने लगे तो थोडी देर ठहर कर फिर आगे बढ़ना चाहिए, आज मैं भी थोडी देर के लिए रुक गई हूँ ऐसा नहीं है की मेरी ज़िन्दगी बोझ बन गई है पर क़दमों में थोडा भारीपन सा महसोस हो रहा है, आज ऑफिस से लौट कर थकावट महसूस कर रही हूँ ,दोनों बच्चे अभी कोचिंग से लौटे नहीं है आठ बजे तक आयेंगे ,अभी काफी समय है मेरे पास आराम करने के लिए, कपडे बदल कर फ्रेश हो कर आई तो सामने किरण चाय का प्याला लिए मेरा इंतज़ार कर रही थी , किरण मेरी कामवाली की बेटी बचपन से मेरे घर में रही अब ओ परिवार का एक हिस्सा सी बन गई है,उसके ग्यारहवी की परीक्षा अभी ख़त्म हुई है ,सो अपनी माँ की मदद करने आ गई ,


चाय पी कर आँख बंद कर के लेट गई ....तो अचानक अपनी माँ का चेहरा आँखों के सामने आ गया आज ना जाने माँ की बहुत याद आ रही है ,मन करता है उड़ कर पहुँच जाऊं .बॉम्बे से कानपुर इतना आसान नहीं तो मुश्किल भी नहीं,

आज रात को अजय से बात करती हूँ ,घर से ऑफिस, ऑफिस से घर सुबह छह बजे से रात बारह बजे तक का समय मशीन की तरह लगे लगे कहाँ बीत जाता है पता नहीं चलता...सोचते सोचते कब आँख लग गई पता ही नहीं चला ......अचानक कानों में आवाज़ आई ,इस समय लेटी हो तबियत तो ठीक है ,उनींदी आँखों से देखा तो अजय खड़े थे ....एक दम से उठ कर बैठ गई घडी साढ़े आठ बजा रही थी "अरे बहुत समय हो गया ,बच्चे आ गए क्या ,किसी ने उठाया क्यों नहीं "

अजय मुस्कुरा कर बोले कोई बात नहीं कभी कभी आराम कर लेना चाहिए ,तभी बच्चों की आवाज़ आई "मॉम डैड डिनर सर्व हो गया है जल्दी आइये "

डिनर टेबल मेरे घर में एक ऐसी जगह है जहा सारा परिवार बैठ कर पूरे दिन का हाल चाल सुनाता है ,दीक्षा अपने फ्रेंड्स की बातें बता रही थी बीच बीच में अर्नव उसको छेड़ रहा था,अजय उस नोक झोक का मजा ले रहे थे .अचानक दीक्षा बोली "मॉम आप यहाँ होकर भी यहाँ नहीं हो क्या बात है "

मैं खुद भी बात करने वाली सो धीमी सी आवाज़ में बोली "सोच रही हूँ कुछ दिन माँ के पास रहूँ ,कभी साल हो गए उनसे मिले हुए बहुत मन कर रहा है ". अर्नव मुस्कुरा कर बोला "तो ये बात है मैं अभी रिज़र्वेशन करवा देता हूँ यहाँ से देहली की फ्लाईएट ले वहां से ट्रेन " आपको जब तक मन करे रहना फिर मैं और दीक्षा भी आ जायेंगे आपको लेने हमें भी काफी समय हो गया है नानी से मिले हुए ".

कानपुर जाने का सोच कर मन फ्रेश हो गया अगले ही दिन ऑफिस में छुटियों की अर्जी दे दी जो मंज़ूर भी हो गई, मन फिर से अल्हड सा हो गया ,माँ और भाभी को फ़ोन से आने का बताया तो दोनों बहुत खुश हुई वैसे भी मेरी भाभी ,भाभी कम सहेली ज्यादा है आज भी घंटों फ़ोन पर बतियाते है ....जाने से पहले सारे काम निपटा लिए पैकिंग सबके लिए शौपिंग और भी बहुत कुछ .

जाने की ख़ुशी में समय के मानों पंख लग गए और मैं अपने कानपुर स्टेशन पर खड़ी थी, आँखें बेसब्री से अपने परिचित चेहरे ढूंढ रही थी ,तभी कंधे पर किसी का हाँथ महसूस हुआ पलती तो बड़े भैया खड़े मुस्कुरा रहे थे, गले लगा कर बोले "कैसी है बिट्टो ",

बिट्टो मेरा प्यार का नाम, सुधा मैडम सुनते सुनते मैं मैडम ही बन गई थी ,और चंचल सी बिट्टो ना जाने कहाँ खो गई थी, भैया के गले लगी तो आँखों के कोरों पर नन्हे नन्हे दो मोती झलक आये ,

भैया सर पर चपत लगा कर बोले " दो बच्चों की माँ बन गई इतनी बड़ी कंपनी में अफसर, पर रही तो झल्ली की झल्ली ,रो क्यों रही है ". मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया "कुछ भी बन जाऊं भैया पर आपके लिए तो आपकी बिट्टो ही रहूंगी ".

सारे रास्ते कितने सारे सवाल थे मन में सबके लिए पूछूंगी नीता ताई कैसी है , उनकी बहु को कुछ हुआ , राधा मौसी के बच्चे भी तो अब शादी लायक हो गए होंगे , बगल वाले शर्मा अंकल की तबियत कैसी है, अपनी ज़मीन पर पैर रखते ही जैसे सारे भूले बिसरे नाम और रिश्ते वापस याद आ गए,

जहाँ बॉम्बे में ट्रैफिक को लेकर परेशान रहती हूँ ,वही कानपुर की सड़कों पर लगा रिक्शा,साईकिल ,हाँथगाड़ी का जाम भी अपना सा लग रहा है,बिलकुल सुकून ना ऑफिस जाने की जल्दी ना कोई टेंशन. गली में घुसते हुए ताज़ी उतरती कचोरी और जलेबी की खुशबू नें याद दिलाया की भूख लग रही है ,भैया हँस कर बोले तुझे घर छोड़ कर तेरे लिए ताजा नाश्ता ले आऊंगा , आज भी भैया मेरा चेहरा बढ़ लेते है, आखिर उनकी इकलौती लाडली बहन जो थी जिसे भैया कभी बहुत दूर नहीं जाने देना चाहते थे बंगलोर का रिश्ता उन्होंने इसीलिए मना किया था, पर उनको क्या पता था जिस बहन को वो लखनऊ ब्याह रहे है वो बॉम्बे जा कर रहेगी...शरू में हर राखी दूज पर दिल भारी हो जाता ना भैया की उदासी कम होती ना उनकी बिट्टो के आंसू रुकते,

पर समय बहुत बलवान होता है धीरे धीरे मैं अपने घर और ऑफिस में व्यस्त होती गई, पर फोन से बराबर बात होती रही, अपने घर की गली में मुड़ते ही मानों बचपन वापस लौट कर आ गया मैं गर्दन घुमा कर देख ही रही थी की घर के सामने गजानन चाचा के घर पर ताला लटकते देख कर परेशान हो गई , वो घर ऐसा था जिसके दरवाजे हमेशा सभी के लिए खुले रहते थे....    क्रमश:

Saturday, December 5, 2009

शक

नारी का तन उपजाऊ होता है तो मानव का मन , हंसी आ रही है ना, स्त्री शारीर में अगर बीज पड़े तो नै ज़िन्दगी जनम लेती है , अगर मानव मन में बीज पड़े तो शक का ऐसा पौधा जन्म लेता है जिसकी जडें पीपल से भी गहरी होती है ,काटते काटते हांथों में छाले  पड़ जाते है ,आँखों में आसुओं का सैलाब उमड़ आता है जो उतरने का नाम नहीं लेता , पर वो जिद्दी जड़े थोड़े थोड़े समय बाद फिर हरी हो जाती है या अपनी चुभन से अपने होने का एहसास दिलाती हैं,


नीरजा की डायरी के पन्ने पलटते हुए अनुज की निगाह कुछ पंक्तियों पर अटक गई " आज देव का इंतज़ार बहुत लंबा हो गया है पता नहीं कहाँ रह गया ढेर साड़ी बातें बतानी है ,बहुत खुश होगा ना वो ", अचानक नीरजा ने अनुज से डायरी छीन ली "क्या करते हो तुम भी ना ,किसी से बिना पूछे उसकी वक्तिगत डायरी नहीं पढ़ा करते ",

"ओह तो अब मैं पराया हो गया और तुम किसी हो गई " अनुज ने तल्ख़ अंदाज़ में कहा, "और फिर इस डायरी में ऐसा क्या है जो तुम मुझसे छिपाना चाहती हो "

"अरे बाप रे तुम तो नाराज़ हो गए " नीरजा ने अनुज को छेड़ते हुए कहा .

"तुम्हारा और देव का रिश्ता कैसा था " अनुज ने सीधे अपने मन की बात नीरजा के सामने रख दी , नीरजा जानती थी अनुज कभी घुमा-फिरा कर बात नहीं करते पर जो बात उनके मन में धंस जाए उसको निकलना बहुत मुश्किल होता है.

"मैंने बताया था न मैं और देव पडोसी होने के साथ सहपाठी भी थे, बचपन से साथ पले बढे थे "

"तो वो देवदास था और तुम उसकी पारो " अनुज ने तिरछी निगाहों देखा और मुस्कुरा दिया, अनुज की मुस्कराहट में छिपे व्यंग को समझना नीरजा के लिए मुश्किल नहीं था.

"मैंने बता दिया ना मेरा और देव का सम्बन्ध दो अछे दोस्तों का था उससे अधिक कुछ भी नहीं "

"तो मैं कब कह रहा हूँ दोस्ती से ज्यादा था " अनुज ने तीर छोड़ने जारी रखा 

"अब मैं तुम्हारी कल्पना के घोड़ों पर तो लगाम नहीं लगा सकती तो तुम स्वतंत्र हो अपने मन के घोड़े  दौडाने के लिए ". नीरजा व्यर्थ के वाद विवाद में नहीं पढ़ना चाहती थी सो वो कह कर भूल गई .

दिन बीते पर अनुज के मन में पड़े शक के बीज में कोंपल फूटने लगी ,नीरजा के व्यवहार ,आचरण , सब में वो वह खाद ढूँढने लगा तो उसकी सोच को सही साबित कर दे.

अपनी बने हुई कलोल कल्पना की दुनिया में धीरे धीरे अनुज क़ैद होने लगा, नीरजा अगर श्रृगार करती तो उसको लगता वो देव के लिए है ,अगर ओ किसी किताब को पढ़ते पढ़ते मुस्कुरा देती तो तो अनुज को नीरजा के देव के ख्यालों में खोये हुए होने का भ्रम घेर लेता, हालाँकि अभी तक अनुज ने देव को देखा नहीं था पर अपनी शक की दुनिया में वो उसको कई बार मूर्त रूप दे चूका था , कई बार उसका मन होता नीरजा से फिर कुछ पूछे , पर उस दिन के नीरजा के तेवर याद कर उसकी हिम्मत जवाब दे जाती आखिर पूछे भी तो क्या , डायरी की उस एक पंक्ति के अतिरिक्त और कुछ भी तो नहीं था,.

अगर नीरजा को उसके मन में छिपे चोर का पता चल गया तो शायद वो उसे छोड़ भी सकती है , उसके स्वाभिमानी व्यक्तित्व से भी वो भली प्रकार परिचित था. अपना बुना जाल अब उसका जीना मुश्किल कर रहा था.

"हाय जीजू , कैसे हो " नीरजा की छोटी बहिन नलिनी की आवाज़ से अनुज मनो वर्तमान में लौट आया

"बस मैडम आप आ गई है तो सब बढ़िया ही बढ़िया हो जाएगा " अनुज ने मुस्कुराते हुए कहा , नलिनी अपनी परीक्षा के सिलसिले में आई थी, १ हफ्ते की परीक्षा के बाद नीरजा ने बहिन को रोक लिया, नलिनी के जीवंत व्यक्तित्व से घर भर में मनो रौनक छ गई, नीरजा और अनुज में बीच जो सन्नाटा पसारने लगा था उसकी छाया और प्रभाव अब धूमिल होने लगे.

"अरे दीदी देव भैया को बेटा हुआ है , मम्मी बता रही थी मैंने नंबर ले लिया है चलो विश करते हैं " नलिनी ने मम्मी से बात करके  फ़ोन रखते हुए कहा

देव का नाम सुनते ही अनुज ने बुरा सा मुह बनाया मनो पहले कौर में बाल आ गया हो, जीजा जी के चेहरे पर हुए इस भाव परिवर्तन को नलिनी ने महसूस किया, उसको कुछ समझ में नहीं आया.उसने अपनी यह सोच नीरजा के सामने रखी .

"दीदी कोई प्रॉब्लम है क्या, देव भैया का नाम सुनते ही जीजू के चहरे पर अजीब सा भाव आ गया था "

" ऐसी तो कोई बात नहीं है एक दिन हम लोगों में कुछ डिस्कसन हुआ था बस, तुझे भ्रम हुआ होगा " नलिनी की बात को टालते हुए नीरजा ने कहा , नलिनी उसके उत्तर से संतुष्ट हो कर सोने चली गई पर नीरजा स्वयं संतुष्ट नहीं हो पाई,अनुज के वयवहार में आये परिवर्तन को वो महसूस तो कर रही थी पर उसकी जड़ में देव होगा ये उसने सोचा नहीं था, उस दिन के बाद दोनों अपने कामों में व्यस्त हो गए थे नीरजा तो उस बात को भूल चुकी थी, उसे महसूस हो रहा था उस दिन के बाद अनुज सहज नहीं हो पा रहा था , या तो ऑफिस से आकर वो लैपटॉप खोल लेता या सो जाता उनके बीच बस मतलब भर की बात ही होती, नीरजा जिसको काम की अधिकता समझ रही थी वो कही कुछ और तो नहीं ...............

नलिनी को विदा कर नीरजा अनुज के पास आकर बैठ गई और उसके कंधे पर अपना सर रख दिया, "कितना सूना लग रहा है ना नलिनी के बिना , "हूँ " अनुज ने संछिप्त सा उत्तर दिया

"क्या हुआ थके से लग रहे हो ऑफिस में बहुत काम है क्या " नीरजा ने अनुज का हाँथ सहलाते हुए कहा

"ऐसा कुछ ख़ास नहीं है ,बस यूँ ही " अनुज बोला

"बहुत दिन हो गए चलो कहीं होकर आते है, मेरा भी अभी प्रोजेक्ट ख़त्म हुआ है , एक अच्छा सा ब्रेक लेते है " नीरजा ने अपनी बाहें अनुज के गले में डाल दी

अनुज ने नीरजा के तरफ देखा उसका चेहरा एक दम मासूम सा लगा , उसने उस चेहरे में कुछ  ढूँढने की कोशिश की पर वहां तो बस उसे अपने लिए प्यार नज़र आ रहा था, नीरजा बोले जा रही थी और अनुज का मन एक अंतर्द्वंद में फँसा हुआ था, एक तरफ उसकी अपनी बने कल्पना थी दूसरी ररफ नीरजा जो बच्चो सी निश्छल , उसके चेहरे पर भाव तेजी से आ जा रहे थे, तभी उसके मन में एक प्रश्न कौंधा

"मैं आखिर शक कर क्यों रहा हूँ " कभी नीरजा के किसी भी बात से महसूस भी नहीं हुआ की वो मेरे अलावा  किसी और को चाहतो भी है ,अब उसने अपनी सारी सोच को दिमाग की चलनी से छानना शुरू किया, शक के कीड़े अलग हो गए और रह गया उनका निर्मल रिश्ता.

पिछले दिनों किया गया अपना व्यवहार उसकी आँखों के सामने आने लगा , जितना बचपना उसने किया था , ये तो शुक्र है नीरजा को मेरे मन के पागलपन का एहसास नहीं है वरना तो मैं निगाह भी नहीं मिला पाता.

अचानक उसकी आँखों में नमी तैर गई , अपनी अपरिपक्वता के चलते वो अपनी नीरजा को खोने चला था ये सोचते ही उसका दिल घबरा उठा ,और उसने नीरजा को गले से लगा लिया.

बहुत दिनों बाद आज वो और नीरजा अकेले थे उन दोनों के बीच में कोई नहीं था ...देव भी नहीं

Monday, November 30, 2009

"मन का रेडियो बजने दे जरा

आजकल एक गीत हर जगह बज रहा है "मन का रेडियो बजने दे जरा", जब सूना तो पहले तो लगा मन क्या एक रेडियो हो सकता है ...फिर लगा क्यों नहीं अगर मन को कोई बात परेशान कर रही तो, वाकई दूसरा चैनेल लगा कर ध्यान बटाया जा सकता है...


पड़ोस की छत पर खडा मोहित अभी तक टकटकी लगाकर शुची की खिड़की की तरफ देख रहा है ,शायद खिड़की खुले और एक झलक दिख जाए दो दिन हो गए घर से निकली भी नहीं,मोबाइल भी स्विच ऑफ कर रखा है, सारी रात जागते हुए बीती है,समझ में नहीं आ रहा क्या हो गया.......

शुची और मोहित का रिश्ता दोस्ती और अफेयर के बीच में चल रहा है,ना मोहित पूछ पा रहा है ,ना शुची कोई इशारा दे रही है जो दोस्ती को कोई नया नाम दे दिया जाए, बड़ा मुश्किल होता है ये बीच का समय , दो छोटे शब्द हाँ या ना पर फैसला ज़िन्दगी भर का, आँखों से बातों से तो एक दुसरे को पसंद करने का एहसास होता है पर पसंद और प्यार फिर दो बिलकुल अलग बातें है , उफ्फ्फ इस कशमकश से ऊपर वाले अब तू ही निकाल अब चैन नहीं या तो इस पार या उस पार...

मोहित के माथे पर पसीने की बूँदें छलक आई.

तभी फ़ोन की घंटी बज उठी शुची का नंबर देख कर मोहित की धड़कने तेज़ हो गई ,"कहाँ हो कैसी हो यार , फ़ोन क्यों स्विच ऑफ था

अरे बाबा मिलो तो बताती हूँ बहुत बातें करनी है तुझसे ,शची ने हुलसते हुए कहा

गुलाबी सूट पहने शुची कितनी मासूम लग रही है ,आज बिलकुल सही दिन है अपने दिल का सारा हाल बता दूंगा आखिर कितने दिन तक मन की बात बताये बिना रह पाऊंगा, मोहित के चहरे पर मुस्कान खेल गई .

"मोहित ओ माय god , मैंने कभी नहीं सोचा था मम्मी पापा इतनी आसानी से राज़ी हो जायेंगे विपुल के लिए" शुची लगातार बोलती जा रही थी झरने की तरह

और मोहित की हालत एक दम जड़ पत्थर की तरह जिसके ऊपर से शुची की सारी बातें पानी की तरह गुज़र रही थी वो कुछ समझ नहीं पा रहा था, शुची इन सबसे अनजान विपुल और अपने रिश्ते के बारे में बताने लगी थी.

मोहित का दिल कर रहा था अपने मन का सारा गुबार बाहर निकाल दे ,शुची तुमने ऐसा क्यों किया, अगर तुम किसी और की थी तो मुझे कभी बताया क्यों नहीं ,शुची को चहकता देख कर उसकी हिम्मत नहीं पड़ी,और वो विदा लेकर बाहर आ गया, आसमान में बादलों की तरह दिल में दर्द के बादल उमड़ रहे थे, अपने रूम में बिस्तर पर लेटते ही आँखों से सब भावनाए आंसुओं का रूप ले कर निकल पड़ी....पता नहीं कब रोते रोते आँख लग गई

जब आँख खुली तो आसमान के बादलों के साथ मन भी साफ़ हो चुका था और नेपथ्य में कही ये पंक्तियाँ बज रही थी

"चैनेल कोई नया tune कर ले ज़रा टूटा दिल क्या हुआ अब उसे भूल जा .....मन का रेडियो बजने दे ज़रा"

Thursday, November 19, 2009

आकर्षण

ये तन ऐसा है जो मन के हिसाब से चलता है पर दिमाग की बिलकुल नहीं सुनता, आज मेरा मन पता नहीं क्या क्या सोच रहा है शादी के आठ साल बाद आज ये इतना बेचैन क्यों है ,कितनी खुशहाल ज़िन्दगी चल रही है घर परिवार भरा पूरा है, ऐसा कुछ नहीं जिसकी कमी हो ,प्यार करने वाला पति दो प्यारे प्यारे बच्चे, बचा समय में घर पर पास के बच्चों को पेंटिंग और क्राफ्ट सिखा लेती हूँ, पूरे हफ्ते सब अपने में व्यस्त रहते है और रविवार को सारा दिन मस्ती...मेरी ज़िन्दगी ऐसी ही चलती रहती अगर मेरी मुलाक़ात इनके बचपन के दोस्त वैभव से नहीं होती....



वैभव और उसकी पत्नी मेधा ट्रान्सफर होकर लखनऊ आये तो उन्होंने इनसे संपर्क किया , अपने बचपन के दोस्त को करीब पाकर ये भी बहुत खुश थे, तीन दिनों में उनकी शिफ्टिंग और सब कुछ सेट हो गया, दोनों का स्वभाव बहुत अच्छा था, हमारा उनसे मिलना अक्सर होने लगा,बच्चों का मन भी उनके बेटे विशाल में रम गया......


मैंने और मेधा ने लगभग सब कुछ बाँट लिया अपनी रुचियाँ अपने सपने ,अपने विचार वैभव और ये भी हमारी बातों में बहुत रस लेते...दिन बीते होली आ गई, हम सारे होली की प्लानिंग करने लगे बच्चे तो हद से ज्यादा उत्साहित थे ,हमारे घर में होली का कार्यक्रम रखा गया , सुबह सुबह सब एक दुसरे के रंग लगाने में लग गए,मैंने मेधा को रंग लगाया और होली की बधाई दी,फिर मैं वैभव को रंग लगाने बड़ी और मैंने उनके गालों पर रंग मॉल दिया फिर क्या था वैभव और इन्होने मिलकर मुझे बुरी तरह से रंग लगाया..रंग लगवाते हुए अचानक मुझे वैभव का स्पर्श कुछ अजीब सा लगने लगा, मैं सहज नहीं हो पा रही थी मैंने वैभव की तरफ देखा तो उसकी आँखों में कुछ अजीब सी चमक थी......तभी बच्चे आ गए और हमारा रंग लगाने का कार्यक्रम ख़त्म हो गया...


होली तो चली गई पर अकेले में मुझे वो स्पर्श अचानक याद आता और मेरे मन में वैसी ही गुदगुदी होती जैसी शायद इनके पहले स्पर्श से हुई थी...वैभव अब भी आते पर मैं अब उतनी सहज नहीं रह पाती...उसकी आँखों में मेरे लिए आकर्षण साफ़ दिखता मेरे जन्मदिन पर मुझे हाँथ मिलाकर विश करते समय उसने मेरा हाँथ ज़रा जोर से दबा दिया और सर से पाँव तक मैं सिहर गई..


मेरे होंठों पर एक रहस्यमयी सी मुस्कान हमेशा रहने लगी, हमारी विवाहित ज़िन्दगी में जो ठंडापन आ रहा था वो कुछ कम होने लगा..मैं जब इनको स्पर्श करती या ये मुझको बाँहों में लेते तो मेरे मन में अचानक वैभव की छवि आ जाती और मैं और जोश के साथ इनसे लिपट जाती, ये मुझे छेड़ते क्या बात है आजकल तुम बदली बदली सी लगने लगी हो...मैं अपने मन में भी वैभव के लिए आकर्षण महसूस कर रही थी..दिमाग कह रहा था "क्यों अपना बसाया परिवार उजाड़ रही है " पर दिल ओ सपने बुन रहा था "इसमें बुराई क्या है किसी को मैंने बताया थोड़े ही है".........


मन हमेशा से ऐसा पाने को लालायित रहता है जो वर्जित हो मैंने कितनी बार कल्पना में अपने को वैभव की बाहों में देख लिया था और मन का चोर कहता था अगर ये सच में हो गया तो कैसा रहेगा,क्या वैभव भी ऐसा ही सोचते है मेरे बारे में ....


क्रिसमस की छुटियों आ गई और हमदोनो परिवारों नें मनाली जानें का कार्यक्रम बना लिया...सच कहूं इनके साथ जाने से ज्यादा मेरा मन वैभव के पास होने के एहसास से खुश था पैतीस साल की उम्र में मुझ में सोलह साल की लड़की सा अल्हडपन आ गया था,सारे रास्ते हम हंसी मज़ाक करते गए बीच बीच में वैभव मुझपर एक प्यार भरी निगाह डाल देता,...दोनों शायद अपने अपने दिल के हांथों मजबूर हो रहे थे, और इस सब में ये भूल बैठे थे की हमारे साथ हमारे जीवन साथी भी हैं ,जो शायद इस बदलाव को महसूस कर रहे थे....


मेधा बहुत समझदार थी, एक स्त्री होने की वजह से उसकी छठी इन्द्रिय ज्यादा सक्रिय थी, शाम को ये और वैभव जब बच्चों को झूले पर ले गए तो मैं और मेधा अकेले बातें करने लगे,


मेधा बोली " नीतू बहुत ठण्ड हो रही है इससे अच्छा हम लखनऊ में ही रहते "


मैंने उसकी बात को मज़ाक में लेकर बोला "क्यों क्या मज़ा नहीं आ रहा ..इतना अच्छा मौसम इतना सुकून मेरा तो यहाँ से जाने का मन ही नहीं कर रहा लगता है बस समय यहीं रुक जाए "


"यही अंतर होता है नीतू किसी को एक एक पल भारी सा लगता है और किसी के लिए समय के पंख लग जाते है " मेधा ने दार्शनिक से संदाज़ में बोला


"तेरे मन में क्या है मुझको तो बता सकती है " मैंने अपने मन के चोर को दबा कर पूछा


"नीतू मैं थोड़े समय से वैभव में बदलाव महसूस कर रही हूँ, मेरा भ्रम भी हो सकता है,मुझे कभी कभी लगता है जैसे ये मेरे साथ होकर भी एरे साथ नहीं है " मेधा के गेहुएं चेहरे पर चिंता की लकीर खीच गई


मेरा चेहरा फक पड़ गया ऐसा लगा बीच बाज़ार में निर्वस्त्र हो गई हूँ ,अबी तक दिमाग की बातों को दिल सामने आने नहीं दे रहा था पर अब दिमाग दिल पर हावी होने लगा " अगर मेधा नें वैभव में परिवर्तन महसूस किया है तो इन्होने भी तो महसूस किया होगा " मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी की मैं मेधा से निगाह मिलाऊं .


"मैडम होटल चलें बहुत थक गया हूँ " सामने से इन्होने मुस्कुराते हुए कहा "तुमको क्या हुआ " इन्होने मेरा उतरा चेहरा देखकर पूछा "


"मैं भी बहुत थक गई हूँ " मैंने सकपका कर जवाब दिया


मयंक सो गए पर मेरी आँखों से नींद तो कोसों दूर थी "मैं क्या करने जा रही थी ,अपना पति ,अपने बच्चे अपनी दोस्ती सब कुछ इतने सारे रिश्ते एक पल के आकर्षण पर दांव पर लगा रही थी " मेरी आँखों से आंसू बह निकले और मैंने अपने पास लेते हुए मयंक को देखा जो बच्चों जैसी निश्तित्ता के साथ सोये हुए थे अचानक मैं माक से लिपट गई ,मयंक नें मुझे रजाई में खीच लिया और मैं उनके सीने से लग कर सो गई .....


सुबह जब आँख खुली तो मन हल्का हो चुका था आसमान के साथ मन से भी बादल छंट चुके थे, मुझे सुकून था मैंने अभी कुछ खोया नहीं था अब मुझे वैभव को भी उस आकर्षण से बाहर निकालना था जिसके चलते हम दोनों अपने रिश्तों में ज़हर घोलने चले थे....


"आज स्कीइंग करने चलते है " वैभव नें मेरी तरफ देखते हुए कहाँ बच्चे भी हाँ में हाँ मिलाने लगे


"अगर आप लोगों को प्रॉब्लम ना हो आप लोग बच्चों को लेकर चले जाओ, आज हमारा मूड होटल में ही रहने का है" मैंने रोमांटिक अंदाज़ में मयंक के गले में बाहें डालते हुए कहा.


"आप अपना सेकंड हनीमून मनाइए बच्चे हमारे साथ चले जायेंगे, मयंक आज नीतू मैडम मूड में है ज़रा संभल कर " मेधा ने मुस्कराते हुए अपनी दाई आँख दबा दी...


मयंक,मेरे और मेधा के ठहाके गूँज उठे और शायद वैभव भी मेरा इशारा समझ गया और मुस्कुरा दिया...






तेरी इबादत


हम भी कमाल का हुनर रखते है
गम में भी मुस्कुरा लेते है
हमारी सिसकियाँ जहान ना सुन पाए
इसलिए ग़ज़ल गुनगुना लेते हैं

तुझको ही मान लिया अपना खुदा हमने
तुझको कब समझा अपने से जुदा हमने
जब जी चाह करें तेरी इबादत
तेरे कंधे पर सर को झुका लेते है

माना बहुत मसरूफ हो तुम
पर अपनी तन्हाई का क्या करें हम
जब जी चाहा तुमको करीब कर लूं
तेरी तस्वीर सीने से लगा लेते हैं









Sunday, November 8, 2009

एक बार फिर.......





जो हुई खता वो उसको भुला दो

एक बार फिर मुझको गले से लगा लो

बनी जो आसुओं की लकीरें उन्हें मिटा दो

एक बार फिर.......



कितनी तन्हाई महसूस की है तेरे खफा होने के बाद

दर्द के सैलाब में बहे है तेरे जुदा होने के बाद

ना देखो बे-रुखी से बस मुस्कुरा दो

एक बार फिर मुझको गले से लगा लो



नादानियां हो जाती है उम्र के इस मोड़ पर

कोई जाता है क्या अपने महबूब को यूँ छोड़कर

दौड़ कर लिपट जाऊं इतना तो हौसला दो

एक बार फिर मुझको गले से लगा लो



हम भी देखेंगे कितने दिन मुलाकात ना करोगे

सामने बैठोगे पर बात ना करोगे

इससे पहले मैं थक कर फना हो जाऊं

एक बार फिर मुझको गले से लगा लो

Wednesday, November 4, 2009

तुम कहाँ हो मनु

डायरी के पन्ने,जैसे जैसे पलटे वैसे वैसे लगा की आज से निकल कर अतीत में पहुँच गई ,ऐसा लगा मानो फिर से सोलह साल की किशोरी बन गई हूँ, हर दिन nai उलझन नहीं खुशियाँ और नए सपने सब कुछ कितना उत्साह भरा.....एक दिन सब बदल गया जब मनु से पहली बार मिली ,मनु मेरी कक्षा में नई थी सिमटी सी मेरे से बिलकुल विपरीत..शायद यही आकर्षण था जिसकी वजह से मैं उसके सामने जा बैठी...
कहाँ से आई हो? पहले कौन से स्कूल में थी ? कहाँ रहती हो ? स्कूल कैसे आती हो
जैसे बीस सवाल मैंने बेचारी पर एक साथ छोड़ दिए वो बस टकटकी लगाकर मुझे देखती रही फिर मुस्कुरा कर बोली "तुम नेहा हो ना सही सूना था तुम्हारे बारे में "
अब आश्चर्य में पड़ने की मेरी बारी थी नहीं लड़की जो आज ही आठवी कक्षा में आई है मुझको जानती है, वो मेरी उलझन समझ गई बोली "मेरी बुआ की बेटी दुसरे सेक्शन में है उसने बताया था कोई आये ना आये नेहा खुद बात करेगी तुझ से "
मेरी जिज्ञासा शांत कर उसकी हँसी छूट गई और मेरी हँसी भी कहाँ रुकने वाली थी ,मैं कब जानती थी ये छोटा सा परिचय अगले चार साल तक अटूट दोस्ती के बंधन में बदल जाएगा.
मनु पढाई में बहुत अच्छी थी और उसका सबसे बड़ा गुण था उसकी एकाग्रता, वो हमेशा कहती नेहा तेरी मेधा में कोई कमी नहीं है बस थोडा एकाग्र होकर पढाई किया कर......मैंने उसे अपने बारे में सब बता डाला घर से लेकर गली के नुक्कड़ वाले मकान की कहानियों तक और ओ हमेशा एक धैर्यवान श्रोता की तरह सब सुनती ......पर उसने कभी अपने बारे में बात नहीं की उसकी सारी बाते पढाई करियर से सम्बंधित होती ...हम साथ में टिफिन खाते जहाँ मेरे लंच में रोज़ कुछ अलग होता उसके टिफिन में उबले आलू और रोटी,
"तुम रोज़ रोज़ एक जैसे खाने से बोर नहीं होती " मैंने लंच के बाद हाँथ धोते हुए पूछा , सुबह-सुबह इससे ज्यादा नही बना सकती उसने बेतकल्लुफी से जवाब दिया , "तुम अपना लंच खुद पैक करती हो " प्रतिक्रया में मेरी आवाज़ कुछ ऊँचे स्वर में निकल गई ....
"मेरी माँ बीमार है तो बस दो साल से घर का सारा काम मैं खुद करती हूँ अब तो आदत पड़ गई है ,सुबह सारा काम कर के आती हूँ और वापस जाकर सारा काम करना होता है "
तुमने कभी बताया नहीं , इसी लिए तुम स्कूल में फ्री क्लास में भी पढाई करती होऔर उसने स्वीकृति में गर्दन हिला दी, उस दिन से मेरे मन में मनु के लिए प्रेम और गहरा हो गया मैं और मनु हमउम्र होने के बाद भी मनो दुनिया के अलग अलग छोर पर रह रहे हो ,जहाँ मुझे सारी सुविधाए मिली वही मनु घर और पढाई दोनों कितनी अच्छी तरह से संभाल रही थी....
समय बीतते देर कहाँ लगती है दोनों साथ में पढ़ते, एक अध्याय वो पढ़ती मुझे समझाती एक मैं पढ़ कर उसको इसी तरह हमने बारहवी की परिक्षा दे दी...स्कूल के बाद मिलने का वादा करके हम अलग हो गए मैं अपने ननिहाल चली गई,
रायपुर से कई बार मनु से संपर्क करने की कोशिश की पर बात नहीं हो पाई, मैंने सोचा घर जाकर मिल लूंगी, दो माह बाद उसी उत्कंठा से मैं उसकी घर पहुँच गई ...उसके घर पर बड़ा सा ताला लटका हुआ था, काफी देर तक कुछ समझ नहीं आया तो मैंने पड़ोस के घर की घंटी बजा दी दरवाजा एक बुजुर्ग अंकल ने खोला " मनु का परिवार क्या कहीं बाहर गया हुआ है " मैंने बेचैनी से पूछा, उन्होंने जो उत्तर दिया उसने तो मेरे पैरों के नीचे की ज़मीन खींच ली कितना कुछ घट गया था मनु की ज़िन्दगी में पिछले दो माह में .......
लम्बी बीमारी के बाद मनु के माँ ने प्राण छोड़ दिए थे, घर वालों नें मनु पर दवाब बना कर उसका विवाह करवा दिया ,और उसके पिता शहर छोड़ कर जा चुके थे.
सब कहते है दुनिया बहुत बड़ी है आज महसूस हो रहा था ....मेरी सबसे प्रिय सहेली के जीवन में तूफ़ान आया था और मैं उससे पूरी तरह अनजान रही.
आज इतने साल बाद भी भीड़ भरे चौराहों से गुजरते हुए निगाह अचानक ठहर जाती है शायद कहीं मनु मिल जाए , मैं नहीं जानती वो कहाँ है कैसी है... बस एक बार मिल जाए.....पर हताशा ही हाँथ लगी ...
तुम कहाँ हो मनु

Tuesday, November 3, 2009

मैं और मेरी दुनिया



कपोल कल्पना की ये दुनिया
मुझको तो मादक लगती है
इस दुनिया की कितनी कृतियाँ
नयनों आगे तिरती है

जिसको चाहूँ जो कह डालूं
जिसको चाहूँ दास बना लूं
या फिर सिंहासन पर बैठाकर
बोलो राजतिलक कर डालूं

एक छाया को मित्र बनाकर
अपने दिल के राज सुना दूं
स्वयं अपनी प्रशंसा में फिर
एक प्रशस्ति गीत मैं गा लूं

आप बनूँ मैं स्वयं की प्रेमिका
खुद ही रूठूं खुद ही मन लूं
या अंजुरी में भर गुलाबजल
अपना मुख सुवासित कर डालूं

इस तनाव भरे जग में
क्यों खुशियों हेतु किसी का मुख देखें
आप ही अपने मित्र बने हम
खुद से प्रेम करना सीखें

Wednesday, October 21, 2009

स्मृतियाँ-हरसिंगार (1)

ऑफिस से निकलते ही दिमाग में घर के काम भर जाते है,दूध लेना है घी भी ख़त्म हो रहा है ,जाते ही वाशिंग मशीन लगनी है....ओफ़्फ़. ऑफिस में घुसने के बाद शायद हमारा दिमाग अपना रोल बदल लेता है उन आठ घंटों में घर की कोई बात जैसे याद नहीं आती जैसे किसी ने पौज़ बटन दबा दिया हो जो छः बजते वापस प्ले हो जाता है.....
अरे ये खुशबू कहाँ से आ रही है अचानक मेरी गर्दन घूम गई, बहुत जानी पहचानी सी जैसे मेरा हिस्सा रही हो अचानक निगाह पड़ी हरसिंगार के पेड़ पर जो कुछ कलियों और अधखिले फूलों से लदा हुआ था....मुझे लगा जैसे पेड़ मुझे देखकर मुस्कुरा रहा हो और पूछ रहा हो "बिटिया मुझे तो तुम भूल ही गई " मैंने कुछ ज़मीन पर पड़े फूल उठाये और घर आकर वापस बचपन में पहुँच गई ....

कम से कम बीस साल पहले अपनी खिड़की के सामने हरसिंगार को देखना हमेशा अच्छा लगता था ,गहरे रंग के कुछ मखमली और कुछ खुरदुरे से लगते पत्ते जो सारे साल शांत रहते पर क्वार का महीना आते ही बौरा जाते ....सफ़ेद फूल नारंगी डंडी और मीठी मीठी खुशबू दूर दूर तक फ़ैल जाती...
मुझे हमेशा हर्सिगार का पेड़ बहुत उदार लगता जिसमे रात को फूल खिलते और सुबह-सुबह उन्हें मोतियों की तरह बिखेर देते और अगर कोई डाल हिला दे तो बस ताजे ओस में भीगे फूल आसमान से बरस उठते जो हमको हिंदी फिल्मों के द्रश्य याद सिलाते जहाँ नायक नायिका पर फूलों की डाल से फूल बरसाता है ........
मेरी दादी हर मौसम में सवा लाख हर्सिगार के फूल अपने ठाकुर जी को चढाती...और हम बच्चों की सेना उनको फूल लाकर देती..रात को पेड़ के नीचे चादर बिछा देते और सुबह-सुबह वो चादर सैकडों फूलों से भरी होती मानो हरसिंगार नतमस्तक होकर खुद लड्डू गोपाल जी को अपने फूल अर्पित कर रहा हो.
दादी सौ सौ के ढेर बनाती और अपनी कॉपी में लिखती....सूखे हुए फूलों की डंडी चन्दन के साथ पीस देती तो चन्दन का रंग और चटख हो जाता....
सवा लाख पूरे होने के बाद जितने फूल होते वो हम बच्चों के खेल का हिस्सा बन जाते ..गुडिया की माला,अपने गजरे ,फूलों की रंगोली और न जाने क्या क्या...
सच है कुछ खुशबू ,रंग और द्रश्य हमारे अस्तित्व का हिस्सा बन जाते है
आज मैं अपने शहर से सैकडों किलोमीटर दूर हूँ,बचपन को गए भी अरसा हो गया पर जब भी हरसिंगार के पेड़ के सामने गुज़रती हूँ और फूलों को हाँथ में लेकर एक बार अपनी दादी को याद करती हूँ......
मैं नहीं भूली न दादी आपको और ना हरसिंगार को.....

Thursday, October 15, 2009

शुभ दीपावली

क्या वो गीतों की तरह गुन-गुन होगी
या वो पायल की तरह रुन-झुन होगी
क्या वो कलियों की तरह मुस्कुरा देगी
या वो झरने की तरह खिल- खिला देगी

खुश होगे तो आँखों में नज़र आएगी
दिल भरी होगा तो गालों पर बिखर जायेगी
क्या वो तारों सी झिल्मिलाएगी
या वो जुगनू सी टिमटिमाएगी

हाँ वो रोशन होगी हज़ार शमाओ से
कह देगी खामोश निगाहों से
उम्मीद करते हैं धनवैभव शुभ लाभ होगा
हर लम्हा दिवाली का चमकेगा हमारी दुआओं से

Wednesday, October 14, 2009

मुहब्बत

बहुत खुबसूरत एहसास है मुहब्बत
इससे कैसे कोई इनकार करे
हर दिल की तमन्ना होती है
की उसको कोई प्यार करे

जो कहता है नहीं यकीन इस शह पर
असलियत में डरते है चोट खाने से
सिर्फ यही ऐसा जज्बा है
जिसमे मज़ा आता है दर्द पाने में

अपनी हसरतों को और ना छिपाओ अब
अपने महबूब के सामने खुलकर आजाओ अब
ज्यादा से ज्यादा इनकार हे तो कर देगा
दिल के इस एहसास को और ना दबाओ अब

Friday, October 9, 2009

चाँद और वो

एक रस्म निभाने को चाँद को देखा ,
आँचल की ओट में माहताब को देखा
दोनों पर नूर चढा था गज़ब का,
खुशकिस्मती हमारी जी भर के शबाब को देखा

एक चाँद के इंतज़ार में ,दूजा चाँद बेकरार था
दगा नहीं देगा मौसम, इस का ऐतबार था
उम्मीद का जुगनू चमका कई बार आँखों में
आती जाती उम्मीद को रुख पर बार बार देखा

हम भी थे इंतज़ार में के शायद करम हो जाए
उस बेचैन नज़र से ये दर्द कुछ कम हो जाए
हाँ अब सुकून आया है दिल-ए-बेताब को
चाँद को देख कर जब उसने मुझे
आँखों में भरकर प्यार देखा

Monday, October 5, 2009

दोपहर

एक सुस्त दोपहर में लेते हुए जम्हाइयां

करते है कोशिश ढूढने को  अपनी परछाइयां 
मन वैसा रीता -रीता सा जैसी  सूनी है सड़के
झुलस न जाए तपिश से धुप में पड़े सपने
तेज धुप से चुन्ध्याती आँखें दुखने लगती है
जब नींद  आती है तो पलके झुकने लगती है
है कैसे लम्बे लम्बे दिन और कैसे जलते तपते दिन
कैसे बीते तन्हाई में बोलो साजन तेरे बिन
तुम बाँहों में जो ले लो तो थोडी सी ठंडक पड़ जाए
सो जाऊं मैं चैन से ये गर्म दोपहर कट जाए

Tuesday, September 29, 2009

तुमने कहा था

तुमने कहा था बताओगे मुझे
की कब मुझसे प्यार का एहसास हुआ
हमारे बीच के रिश्ते का
कौन सा पल एक दम ख़ास हुआ

सुनने को बेकरार हूँ मै
तुम्हारे लबो से ये कहानी
शायद ऐसे ही सुलझ जाए
कुछ उलझने अनजानी

यूँ तो बात बात पे कहते है
तुमको बस तुमको ही चाहता हूँ मैं
दिन रात तेरी सलामती की ही
दुआ मांगता हूँ मैं

पर मुझे भी तो हक है
की मैं भी महसूस करूँ
तुम्हारे दिल के नर्म कोने को
मेरे खयालो ने कब छुआ

Friday, September 25, 2009

चाहत

किस्मत से शिकायत का क्या फायदा ,
एक तरफा मुहब्बत का क्या फायदा
चाहो उसे जो चाहे तुम्हे
बेमतलब की चाहत का क्या फायदा

Thursday, September 24, 2009

ये रिश्ता...


हर रिश्ते की एक मर्यादा होती है एक सीमा होती है, जब तक इन सीमाओं का पालन होता है तब तक रिश्ते की पवित्रता बनी रहती एक बार ये रेखा पार की तो वापसी का कोई रास्ता नहीं बचता, मोहित और अनूपा के रिश्ते के साथ कुछ ऐसा ही हुआ.........
शादी की पहली वर्षगाँठ पर मसूरी की वादियों में एक दुसरे के आगोश में सिमटे हुए दोनों को जैसे वक़्त का कोई अंदाज़ ही नहीं था ऐसा लग रहा था समय यही रुक जाए...और ये पल ठहर जाए...
क्या तुम हमेशा मुझको ऐसे ही प्यार करोगे..अनूपा नें मोहित के हाँथ को दबाते हुए पूछा..और मोहित ने अपने होंठों से अपुपा के होंटों पर प्यार की स्वीकृति दे दी, दोनों सारी शाम अपने आने वाले कल के बारे में बात करते रहे,
मोहित की जॉब अच्छी चल रही थी और दोनों के खर्चे भी इतने नहीं थे दोनों ने परिवार बढाने का फैसला लिया घर वालों ने भी कहना शुरू कर दिया था...
समय के तो जैसे पर लग गए अनूपा दो बच्चों की माँ बन गई उनके साथ शादी के पांच साल कैसे गुज़र गए, अगले महीने उनकी शादी के छः साल पूरे हो जायेंगे...
बच्चों के साथ कब सुबह से रात और रात से सुबह हो जाती कुछ अंदाज़ नहीं रहता , अनूपा मेरे शेयर के certificates निकाल देना मुझे जरूरी काम है मोहित ने ऑफिस के लिए निकलते हुए अनूपा को बोला...घर का काम निबटा कर छोटी बेटी को दूध पिला कर सुलाने के बाद जब अनूपा ने घडी देखि तो १२.०० बजे थे बेटे के प्ले स्कूल से आने में अभी काफी वक़्त था, पपेर्स के लिए मोहित एक बार फ़ोन भी कर चुका था ..
अलमारी में पपेर्स देखते हुए अचानक अनूपा के हाँथ मसूरी की एल्बम लग गई...उसके पन्ने पलते हुए जैसे ओपा अतीत में पहुँच गई...कितना कुछ बदल गया था इन पांच सालों में अपने को आईने में देखा..आधा दिन बीत गया था अभी तक वो रात की ड्रेस में ही थी बाल बेतरतीब हो रखे थे ,पेट पर कुछ मांस के घेरे बढ़ गए थे...मैं कितनी बदल गई हूँ अनूपा नें शीशे में खुद को निहारते हुए सोचा और मोहित वो तो शायद बिलकुल बदल चुके हैं ........
हर साल ऑफिस में प्रमोशन के साथ नै जिम्मेदारियों के बीच मोहित का घर के लियी और घर वालों के लिए समय कम होता चला गया,घर आने के बाद भी लैपटॉप पर काम ..दोनों साथ रहते रहते कब अजनबी हो गए दोनों को पता नहीं चला,अनूपा और मोहित के बीच बातचीत कम होती चली गई अगर होती भी तो बस बच्चों को लेकर....
अनूपा नें अपने हाँथ देखे कुछ खुरदुरे से लगे क्या फिर कभी वो दिन वापस आयेंगे अपने आप से अनूपा ने पूछा ...कागज़ निकालने के बाद अनूपा ने घर पर निगाह डाली घर तो सजा संवारा था पर सब परफेक्ट रखने में अनूपा खुद को सवारना भूल चुकी थी.
तभी फ़ोन बजा मैं ऑफिस से लेट हो जाउंगा डिनर मीटिंग है तुम वेट मत करना ...दूसरी तरफ से मोहित ने कहा..शुरू शुरू में मोहित इतना लेट नहीं होते थे पर पिछले दो तीन महीने से मोहित काफी लेट आने लगे थे....सोचते हुए अनूपा लेट गई इतनी देर में फ़ोन फिर से बजा...इस समय कौन है अलसाते हुए अनूपा ने फ़ोन उठाया...कैसी हो मेमसाहब ...मिनी दीदी ख़ुशी से अनूपा बोली
रायपुर से मिनी दीदी का फ़ोन था, मिनी दी अनूपा की सहेली बहिन और बहुत कुछ...
तेरे जीजाजी टूर दिल्ली आ रहे है १५ दिनों के लिए तो सोचा मैं भी आ जाऊं..तुझे कोई परेशानी तो नहीं...
क्या बात करती हो दीदी अनूपा ने ख़ुशी से चहकते हुए बोला...मिनी दी के आने की खबर से अनूपा की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा उसने मोहित को भी फ़ोन करके खबर दी....
अरे अनूपा तुने अपनी क्या शकल बना रखी है..गले लगते हुए दीदी ने बोला..क्या करूँ दीदी समय ही नहीं मिलता दीदी के चमकते हुए चेहरे की तरफ देखकर सकुचाते हुए सनुपा बोली ...
कितना मेन्टेन कर रखा है दीदी ने..ऐसा लगता ही नहीं की दो बड़े बड़े बच्चे है....
अनूपा और मोहित के रिश्ते के बीच पसरते सन्नाटे और ठंडेपन को दीदी अनूपा और मोहित के रिश्ते के बीच पसरते सन्नाटे और ठंडेपन को दीदी की नज़रों ने आसानी से भांप लिया.तेरे और मोहित के बीच सब ठीक तो है ना....दोपहर में बिस्तर पर लेटे हुए दीदी ने पूछा,हाँ सब ठीक है आप को क्या कुछ गलत लग रहा है अनूपा ने उबासी लेटे हुए कहा..
दो दिन हो गए मुझे यहाँ आये हुए तुमको और मोहित को ना तो बात करते देखती हूँ ना हस्ते हुए साथ होकर भी जैसे साथ नहीं हो....
मोहित को मेरे लिए और बच्चों के लिए बिलकुल टाइम नहीं है वो सारा दिन ऑफिस में रहते है और मैं यहाँ घर और बच्चों में........
दीदी बोली पति के साथ रिश्ते को इतने हलके से मत लो कहीं देर ना हो जाए ....
आप का कहने का क्या मतलब है दीदी अनूपा के चेहरे पर बेचैनी की लकीर खिंच गई
क्रमशः

Tuesday, September 22, 2009

मजबूर

बनाया हमने आशियाना पत्थरों का जो मजबूत था
क्या थी खबर वो हमारे ख्वाबो का ताबूत था ,
चाहा अपने आप को बचा लूं ज़माने से
खुदा से की गुजारिश पर वो भी मजबूर था

Monday, September 21, 2009

उसरी


उसरी ,
रसोई से बर्तनों की पटकने की आवाजें तेज हो गई थीं और निमिषा बिना इन
आवाजों पर ध्यान दिए अपनी सिलाई मशीन पर लगी हुई थीं पड़ोस की शीला की
शादी थी उसकी सारी साडी की फाल और चोली सिलने का काम निमिषा को मिला था
,मशीन चलाते चलाते प्यास का एहसास हुआ गला कुछ सूखा सा लग रहा था ,निगाह
उठा कर देखा तो घडी में बारह बजने को थे ,
बच्चों थी स्कूल से आने का समय हो चला था, पानी पीने को रसोई में फ्रीज
खोला तो लगा पीठ पर दो निगाहें चुभती हुई सी महसूस हुई पलट कर देखा
जेठानी का ध्यान रोटी बनाने पर कम उसपर ज्यादा था , वो फिर उनकी परवाह
किये बिना वापस मशीन पर आ गई, मशीन थे पहिये थे  साथ उसका मन भी घूमने लगा
इक्कीस  साल पहले ....................................
ढोल ताशों थी बीच जब वो दुल्हन बन कर आई थी आज भी एक एक पल उसके सामने
फिल्म की रील की तरह घूम जाता है चारो  तरफ मचता शोर ,रिश्तेदारों का जमघट
हर कोई नई दुल्हन की अगवानी करने को बेताब ..."अरे नहीं बहुरिया को पहले
मंदिर ले गए या नहीं", नन्नू की अम्मा रोली टिके की थाली तो ला ", अनाज
का कलश देहरी पर रख ,
सारी रस्मे वो मशीन की तरह निभाती चली गई,कम से कम बीस लोगों के तो पैर
छुए होंगे और ढेरों आशीष पाए,
उसको मुहदिखाई से पहले थोडी देर आराम करने के लिए कमरे में बिठा
दिया,घूघट की ओट से उसने अपनी ससुराल देखने की कोशिश की , पीले रंग से
नया पुता हुआ कमरा पूरे कमरे में लगे आदमकद शीशे, सामने  दीवार पर राधा
कृष्ण की जुगल तस्वीर कुल मिला कर कमरे को बहुत सुन्दर बना रही थी , कोने
में सिंगार की मेज रखी थी जिसपर नए फैशन का  सिंगार का सारा सामान रखा
था,
निमिषा को तो ये सब सपने जैसा लग रहा था, चार बहिन दो भाइयों का बड़ा
परिवार,निमिषा के पिता सरकारी नौकरी में थे अगर बहुत वैभव नहीं था तो
खाने पीने की कोई कमी भी नहीं थी ,
सभी बच्चों की पढाई पर पूरा ध्यान दिया था , निमिषा शुरू से पढाई में
ज्यादा अच्छी नहीं थी पर घर के काम काज में उसकी सुघड़ता देखते बनती थी ,
चाहें खाना बनाना हो ,सिलाई कढाई हो या बचे हुए सामान से कुछ बनाना उसके
शौक को देखते हुए उसकी उसे हर गर्मी की छुटियों में हॉबी क्लास भेज देती
थी, पांच भाई बहिन में तीसरा नंबर था निमिषा का, उसके हाँथ ने स्वाद की
वजह से सारे उसे अन्नपूर्णा कहते थे,
उसके इसी हुनर की वजह से मांग कर रिश्ता हुआ था,
निमिषा की जेठानी उसकी दीदी की चचेरी ननद थी जो उसके बनाये हुए मटर पनीर
,और रसगुल्लों के स्वाद में उलझ कर रह गई थी और जाते ही अपने लाडले देवर
नितिन के लिए सरकारी बाबू की बिटिया का हाँथ मांग लिया
अँधा क्या चाहें दो आँखे घर बैठे जब इतने अच्छे परिवार का रिश्ता आया तो
मन करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता उँचा कुल , पढ़ा लिखा लड़का , खाता 
पीता परिवार बिना चप्पल घिसे बिटिया बिदा करने का सौभाग्य मिल रहा था,
पिता की ख़ुशी का ठिकाना न था तो माँ  मंदिर में दिया जलाने और इकीस रूपये
का प्रसाद चढाने  दौड़ पड़ी ,लड़के वालों की कोई मांग नहीं थी पर मिश्रा जी
ने अपने सामर्थ्य के अनुसार बिटिया को दे दिवा कर विदा किया,
आजसे निमिशा की नयी ज़िन्दगी शुरू हो रही थी नया घर नए लोग कुछ डर और कुछ
शर्म से गठरी बनी कमरे में बैठी थी , सारी रात शादी की रस्मों में बैठे
बैठे कमर अकड़ गई थी , जरा सा लेटने को मिल जाता तो आराम मिल जाता, पर हर
आहट पर चौंक कर निगाह दरवाजे पर पहुँच जाती ....


तभी दरवाजे से जिठानी सीमा मुस्कुराती हुई आई साफ़ गेंहुआ रंग ,भरा हुआ शरीर काजल लगी बड़ी बड़ी आँखें सलीके से किया हुआ सिंगार ,सुर्ख लाल रंग की बनारसी साडी के साथ बड़ी सी बिंदी लगाए बिलकुल ठकुरानी सी लग रही थी , उनके वयक्तिव से रईसी की ठसक जाहिर हो रही थी, आखिर थी भी तो कानपूर के मशहूर वकील इश्वर्सरन की एकलौती बेटी.
निमिषा को अपने साथ लेकर बाकी की रस्में निपटाने के लिए मुहँदिखाई शुरू हुई निमिषा का घूंघट उठाया गया , यूँ तो निमिषा देखने में सुन्दर थी आमकी फंकों की तरह कटीली आँखें, नुकीली नाक जिसके नीचे पतले पतले गुलाबी होंठ, कमर तक झूलती नागिन जैसी चोटी...बस रंग थोडा गहरा सा था पर चेहरे का भोलापन देखने वालों की निगाह को एक बार रोक ही लेता सारी रस्मे पूरी होते होते ग्यारह बज गए नींद के मारे बुरा हाल हो गया, पता नहीं कब बैठे बैठे निमिषा की आँख लग गई वो तो सोती ही रह जाती अगर जिठानी का बेटा उसको आकर जगाता नहीं , तीन साल का छोटा सा प्यारा सा पिंटू रबड़ के गुड्डे जैसा ,निमिषा का मन किया उसे गोद में ले ले तभी सब उसे कमरे में ले गए.
शादी की शुरुवात का एक महीना तो जैसे सपने की तरह गुजर गया नितिन के साथ कुल्लू -मनाली की वादियों में घुमते एक दुसरे के साथ को, स्पर्श को महसूस करते हुए , लगा बस अब ज़िन्दगी ऐसी ही रहे कुछ ना बदले पर ऐसा होता ही कहाँ है. हनीमून से वापस आने पर सब बदल चुका था, सारे रिश्तेदार जा चुके थें, नितिन भी ऑफिस जाने लगा, पिंटू स्कूल घर में अब बस निमिषा और उसकी जेठानी,
निमिषा तो शुरू से ही घर के कामों में होशियार थी सो घर क रूटीन को समझने में ज्यादा समय नहीं लगा,किसको खाने में क्या पसंद है मिर्च मसाले कैसे पड़ते है बहुत जल्दी सीख गई , उसके हाँथ का खाना सबकी जबान पर चढ़ गया सब तारीफ़ कर कर के खाते थे , जिठानी ने बाहर का काम संभाल लिया और रसोई क ज़िम्मेदारी निमिषा पर आ गई, घर पर लक्ष्मी जी की कृपा थी ही, सबको सबके मन का खिला कर निमिषा का मन खुश हो जाता, और नितिन जब तारीफ़ की नज़रों से देखता तो वो उसे लगता की दुनिया की सारी खुशियाँ मिल गई, तीन साल में दो प्यारे- प्यारे बच्चों की माँ बन गई, सब बढिया चल रहा था
पर समय बदलते देर नहीं लगती , कुछ महीनों से जेठ जी रात को देर से आने लगे थे उनको ताश खेलने की आदत लग गई थी ...शुरुवात मजे के लिए हुई तो लत में बदल गई ,नितिन ने बहुत कोशिश की पर हारा हुआ जुआरी अपनी हर रात की हार को सुबह जीत में बदलना चाहता है ,
वो लक्ष्मी जो घर में धन धान्य बरसा रही थी आज ताश के पत्तों के साथ घर से बाहर जाने लगी ,
घर के खर्चों के लिए भी हाँथ तंग होने लगा , दाल में घी कम हो गया ,दो की बजाय एक सब्जी और दही से काम चलाया जाने लगा ,
नौकर चाकर भी निकाल दिए गए जिन खर्चों का कभी हिसाब भी नहीं होता था अब एक -एक पैसे का खर्च भी फिजूल लगने लगा
निमिषा के जिम्मे घर के काम बढ़ने लगे रसोई ,बर्तन ,घर की सफाई ...साथ में बच्चों को पढाना, जिठानी बड़े घर की बेटी थी सो जरा सा काम करते ही उनके हाथ में दर्द होने लगता था, निमिषा ने जब धीरे से कुछ कहना चाहा तो जिठानी बीच आँगन में बिफर पड़ी , मेरे परिवार की दो रोटियाँ सेकनी तुमको भारी पड़ती है अपने परिवार का मैं खुद संभाल लूंगी... रुपयों की तंगी ने दिलों को भी तंग कर दिया था, कुछ ख़ास नहीं बदला अभी भी निमिषा सब संभाल रही थी, बस जेठानी अपना और अपने बच्चों का खाना लगा कर शाम छह बजे से ही कमरे में ले जाती,फ़िर बाहर  ना निकलती
जब निमिषा नितिन अपने परवार का खाना लगाती तो कभी सब्जी कम पड़ जाती तो कभी आलू की रसेदार सब्जी में आलू कम होते, जेठ रात को चाहें दो बजे आये उनका खाना लगाना निमिषा की ज़िम्मेदारी थी क्योंकि वो उसके हाँथ का खाना खाते थे...
बढती  ज़िम्मेदारी और अपने परिवार को समय ना दे पाने की कसक से निमिषा चिड़चिडी सी हो गई थी , नितिन भी बढ़ते खर्च और घटी आमदनी से परेशान रहने लगे थे.
निमिषा को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था.
एक दिन उसकी सहेली ने बातों ही बातों में उससे अपनी नई साड़ी की फाल लगाने और चोली सिलने को कहा , दरजी ने समय पर देने से मन कर दिया ,समय ना होने पर भी अपनी सहेली कंचन को निमिषा मना नहीं कर पाई, रात को एक बजे तक बैठ कर उसका काम पूरा करके दिया,
अगली सुबह कंचन जब साड़ी लेने आई तो दंग रह गई "निमिषा तेरे हाँथ में तो जादू है कितनी अच्छी फिटिंग दी है, बहुत सफाई है तेरे हाँथ में" मन करते करते भी हाँथ में अस्सी रूपये रख गई बोली दरजी को भी तो देती ना और ये तो तेरी मेहनत के है,
कंचन ने उससे फ़ोन पर कहा मेरी किट्टी की सहेलियां भी तुमसे कपडे सिलवाना चाहती है ,निमिषा मन ही मन में खुश तो हुई पर बोली घर के कामों से समय ही नहीं मिलता,कैसे करुँगी ,कंचन बोली घर बैठे काम आ रहा है और तू मना कर रही है सोच कर जवाब दे कोई जल्दी नहीं है,
रात को नितिन से निमिषा ने सारी बात बताई, और अपनी परेशानी भी .....नितिन बोला घर में काम मिल रहा है इससे अच्छी तो कोई बात हो नहीं सकती अपनी पैसों की परेशानी भी कुछ कम हो जायेगी, चलों मैं सुबह बड़े भैया से बात करूँगा.

बड़े भैया को भी अपनी गलती का एहसास होने लगा था घर की गिरती हालत ने उनकी आँखें खोल दी थी नितिन की मदद से वो अपनी जुए की लत से छुटकारा पाने की कोशिश कर रहे थे .बड़े भैया को भी इसमें कोई बुराई नहीं दिखाई दी घर के कामों के लिए भैया ने कहा तुम दोनों जेठानी देवरानी अपनी अपनी एक एक दिन की उसरी (ड्यूटी ) बाँध लो, घर में अलग से आमदनी आएगी तो अच्छा ही रहेगा, इस सारी बातचीत को जेठानी चुपचाप सुनती रही उनके चेहरे पर इतनी देर में कितने रंग आये और चले गए , बीस सालों में जिसको थोडा काम करने की आदत हो उसपर पूरे दिन का काम आजाये तो उसके पैरो के नीचे से जमीन निकल ही जाती है, उसने तर्क करने की बहुत कोशिश की " ऐसे काम थोडी चलता है , एक कपडा भी खराब हुआ तो नाम खराब हो जाएगा , कौन काम देगा , बाज़ार में क्या दर्जी मर गए है ,बड़े भैया अपनी अर्धांगनी की बेचैनी समझ गए और बोले मुझे जो फैसला करना था वो कर दिया, आज से बल्कि अभी से तुम दोनों हफ्ते के दिन बाँट लो .
निमिषा को तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गई उसने कंचन को फ़ोन कर हामी भर दी , जेठानी ने बीस साल बाद रसोई में कदम रखा तो मसाले दालें ढूँढने में आधा घंटा लग गया , निमिषा के आने के बाद रसोई में जाने की जरूरत ही नहीं रही थी, जैसे तैसे खाना बनाया तो उसमे स्वाद नदारद ना नमक का अंदाज न हल्दी का... एक दो बार निमिषा का मन हुआ जा कर मदद करे पर बीस साल बाद मिली आज़ादी को वो खोना नहीं चाहती थी,
कंचन की मदद से निमिषा का काम चल निकला कपडे सिलवाने वालों की और सिलाई सिखने वालों की लाइन लग गई, काज बटन और बखिया का काम उसने पड़ोस की जरूरतमंद राधा को दे दिया,
बच्चों के साथ समय मिलने लगा घर में अतिरिक्त आमदनी भी आने लगी , नितिन भी खुश थे .
अब इतवार को वो बच्चों को घुमाने जाने लगी बस जो खुश नहीं थी वो थी उसकी जेठानी ........
आज एक साल पूरा हो गया निमिषा को काम करते हुए, अब जा कर ज़िन्दगी ढर्रे पर आई है, अब कोई भी सबको तो खुश नहीं रख सकता ये सोच कर निमिषा के होंठों पर मुस्कराहट फ़ैल गई और संतोष के भाव आ गए........
रसोई में बर्तन पटकने की आवाजें और तेज़ हो गई



सोनल रस्तोगी ०९-जून-२००९

एक तेरे नाम ने


एक तेरे नाम ने साँसों को बचा रखा है
वरना तेरे बगैर इस दुनिया में क्या रखा है
इक तेरा चेहरा ही है फरिश्तों सा रोशन
इसलिए तुझको सीने से लगा रखा है
एक हम है जिसे तेरे सिवा कोई याद नही
एक तू है जिसने मुझे भुला रखा है

अकसर डर जाती हूँ सोच कर
तू अगर मेरे साथ न होता तो क्या होता
शायद मायूस रहती हर लम्हा
शायद हर पल ये दिल रोता
तू ही है जो न जाने कैसे
बिखरा देता है मुस्कराहट लबों पर
घबराते दिल को सुकून मिलता है
जब रख देता है हाँथ कंधे पर
सच में शायद कभी न सो पाती
जो न लगाता मुझे सीने से
बस तू है वो वजह जो मैं जिंदा हूँ
वरना नफरत सी है अपने जीने से

Thursday, July 2, 2009

नम आसमान

फिर कुछ नम सी महसूस हुई है ज़मीन ,
टपका है तेरा आंसू या बरसा है आसमान
भीड़ में चल रही हूँ लेकिन
मेसूस होती है तन्हाइयां यहाँ
शायद मैं समझ जाती जो तुम सुनाते
ये दिल के अफ़साने अनसुने ना रह जाते
पर अब बदल गया है वक्त
मैं कहाँ और तुम कहाँ
सोनल ०२ जुलाई २००९